Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ विभिन्न दोषों का स्वरूप 113 उत्सर्पिणी में छह-छह काल होते हैं / (अवसर्पिणी अपेक्षा) पहला सुखमासुखमा काल चार कौडाकोडी सागर का होता है, उसमें मनुष्य तथा तिर्यन्चों की आयु तीन पल्य तथा काया तीन कोस होती है / दूसरा सुखमा काल तीन कौडाकोडी सागर का होता है जिसमें आयु दो पल्य तथा शरीर दो कोस का होता है। तीसरा सुखमादुखमा काल दो कौडाकोडी सागर प्रमाण का होता है, उसमें आयु एक पल्य तथा शरीर एक कोस का होता है / चौथा दुखमासुखमा काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कौडाकोडी सागर का होता है जिसमें अधिकतम आयु एक कोडी पूर्व तथा शरीर सवा पांच सौ धनुष का होता है। उसमें पहले तो चौदहवें कुलकर नाभिराजा हुये, उनके समय से पहले तक नव कौडाकोडी सागर तक तो युगलिया (एक पुत्र एवं एक पुत्रि का एक साथ जन्म होने का) धर्म रहा, संयम का अभाव रहा, दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त भोगों की अधिकता रही। अंतिम कुलकर आदिनाथ तीर्थंकर हुये, उन्होंने दीक्षा ली तो उनके साथ चार हजार अन्य राजाओं ने भी दीक्षा ले ली, पर वे मुनिव्रत के परिषह सहने में असमर्थ रहे / अयोध्या नगरी में तो चक्रवर्ती भरत के भय से गये नहीं, वहां वन में ही वन के फल खाने तथा अनछना पानी पीने लगे। तब वन देवी ने कहा कि हे पापियो ! नग्न मद्रा को धारण करके भी इन अभक्षों का भक्षण करोगे तो मैं तुम्हें सजा दूंगी / यदि तुमसे इस जिनमुद्रा में क्षुधा आदि के परिषह नहीं सहे जाते तो अन्य वेश धारण करो / तब इन भ्रष्टों ने वैसा ही किया / कुछ ने जटा बढाई , किसी ने नाखून बढाये, किसी ने राख लगाई, कोई जोगी, कोई संन्यासी, कोई कनफटा, एकडंडी, त्रिदंडी तापसी हुये। कुछ ने लंगोट रखी इत्यादि नाना प्रकार के भेष बनाये / एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर भगवान को केवलज्ञान हुआ, तब कुछ ने तो सुलट कर पुन: दीक्षा धारण कर ली, कुछ वैसे ही रहे, कुछ ने नाना प्रकार के वेष धारण किये।