Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ विभिन्न दोषों का स्वरूप 111 के निर्माण कार्य में लगाते हैं, अथवा पंचायती में धन लिखकर बोर्ड अथवा पत्थर के पाटिये पर नाम उकेरे जाने का लोभ देकर जबरन गृहस्थ के पास से पैसा लेकर लगाते हैं / ____ पश्चात् किराये देने के लिये मंदिरजी के नीचे बहुत सी दुकानें बनाते हैं / उन दुकानों में हलवाई, छीपा, दर्जी, हाट करने वाले पंसारी, गृहस्थ आदि को रखते हैं अथवा अनाज से दुकानें भर देते हैं / गृहस्थ तो वहां कुशील आदि का सेवन करते हैं, हलवाई रात दिन भट्टी जलाते हैं, अनाज की दुकान में जितने अनाज के कण हों उतने ही जीव पड जाते हैं तथा ऐसा पाप जब तक मंदिर रहता है तब तक हुआ करता है / उन दुकानों के किराये से प्राप्त धन जिन मंदिर के कार्य में लगाते हैं, अथवा पूजा करनेवाले को (अर्थात ठेलवे एवं माली को वेतन के रूप में) देते हैं तथा जिनमंदिर में कुलिंगियों को रखकर श्रीजी के अविनय का घोरनघोर (बहुत अधिक) पाप करते हैं / वे कुलिंगी वहां पर ही खाते-पीते हैं, वहां ही शयन करते हैं, अथवा मंत्र-जंत्र, ज्योतिष, वैद्यक आदि की आराधना करते हैं, स्त्रियों से हंसी -मजाक करते हैं। जिनमंदिर की वस्तुओं को इच्छानुसार अपने निजि काम में लेते हैं, अथवा बेच भी खाते हैं / अपने को पुजवाते हैं अथवा जो स्त्रियां मंदिरजी में आती हैं उनकी वहां विकथा करके महापाप उपार्जित करते हैं / वे प्रतिमाजी को तो पीठ देते हैं, परस्पर पांव लगते हैं, तथा पंडित, यति, जैन लोगों से नमस्कार करवाते हैं / जितने पुरुष आते हैं वे लौकिक बातें करते हैं, बारम्बार शिष्टाचार करते हैं। प्रतिमाजी अथवा शास्त्रजी की अविनय हो उसकी चिंता नहीं करते। मंदिरजी की बिछायत, नगारे आदि निर्माल्य वस्तु गृहस्थ अपने घर में हो रहे विवाह आदि कार्यो के लिये ले जाकर काम में लेते हैं, यह विचार नहीं करते कि इसमें निर्माल्य का दोष लगता है / इत्यादि जब तक मंदिर रहता है तब तक मंदिर में अयोग्य कार्य