Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 109 विभिन्न दोषों का स्वरूप (मूल ग्रन्थ में “चौथे काल में प्रतिमाजी के निर्माण का स्वरूप" उपदेश बोधक शैली में लिखा गया है, जबकि चौथे काल (भूतकाल) का कथन भूतकाल की भाषा में होना अधिक तर्क संगत है, ऐसा ही होता भी है / पर मूल में उपदेश बोधक शैली में वर्णन होने से यहां भी वैसा ही भाषारूपान्तरण किया गया है।) वह मंदिर का निर्माता गृहस्थ उत्सव पूर्वक खदान पर जावे तथा खदान की पूजा करे, खदान को निमंत्रित कर कारीगर को वहां छोड आवे / वह कारीगर ब्रह्मचर्य अंगीकार करे, अल्प भोजन करे, उज्जवल वस्त्र पहने, शिल्पशास्त्र की जानकारी पूर्वक विनय सहित टांकी से पाषाण को धीरे-धीरे काटे / फिर वह गृहस्थ गृहस्थाचार्य एवं कुटुम्ब परिवार सहित बहुत से जैन लोगों को साथ लेकर गाते बजाते, मंगल गाते, जिनगुण का स्तोत्र पढते महान उत्सव पूर्वक जावे, तथा जिस पत्थर से प्रतिमाजी का निर्माण होना है उस पत्थर की पूजा कर, चमडे के संयोग रहित सोने-चांदी से बने, महा पवित्र तथा मन को रंजायमान करने वाले रथ पर बहुत रुई आदि रखकर उस पर पाषाण को रख पूर्ववत उत्सव पूर्वक जिनमंदिर लावे। __एकान्त पवित्र स्थान पर बहुत विनय पूर्वक शिल्पकार शास्त्र के अनुसार प्रतिमाजी का निर्माण करे / उस प्रतिमाजी के निर्माण में बहुत से दोष-गुण लिखे (बताये) गये हैं, उन सब दोषों को टालते हुये संपूर्ण गुणों सहित यथाजात स्वरूप की पूर्णता कुछ काल में होती है (प्रतिमाजी कुछ काल में पूर्ण तैयार होती है)। एक ओर तो मंदिरजी का निर्माण होता जाता है, दूसरी ओर प्रतिमाजी की पूर्णता होती जाती है / __जिनबिंब प्रतिष्ठा के मुहूर्त पर बहुत से गृहस्थ, एवं आचार्य, पंडितों को एवं देश-विदेश के साधर्मियों को पत्र लिखकर बहुत प्रीति पूर्वक बुलावे / उस संघ को नित्य प्रति भोजन, रसोई करावे तथा दुखितों को