Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 108 ज्ञानानन्द श्रावकाचार ___ ऐसी भावना रखे :- मैंने तो धर्म कार्य का विचार किया है, अत: महंगा कार्य कराने पर अच्छा काम होगा, महंगी खरीदी वस्तुयें अच्छी होती हैं / कृपणता छोडकर दुःखित भूखे जीवों को सदैव दान दे तथा कारीगर, मजदूर, नौकर आदि जो कार्य करने वाले हैं उन पर किसीप्रकार की कषाय न करें / चित्त सदा प्रसन्न रखें / सब का विशेष हित साधे, सौजन्यता गुण का पालन करे / मन में सदैव एक उत्साह वर्ते कि कब मंदिरजी का कार्य पूर्ण हो ? श्रीजी विराजमान हों, तथा जिनवाणी का व्याख्यान हो जिसके निमित्त से बहुत जीवों का कल्याण हो, जिनधर्म का उद्योत हो, बहुत जीव इस स्थान पर धर्म साधन कर स्वर्ग-मोक्ष में जावें / मैं भी संसार के बंधन तोड कर मोक्ष जाऊं / संसार का स्वरूप महादुःख रूप है, जिनधर्म के प्रताप से पुनः ऐसे दुख न पाऊँ। वे वीतराग देव स्वर्ग-मोक्ष का फल शीघ्र देते हैं। इनके बताये धर्म पर चलने का फल शीघ्र मिलता है। जिनदेव की भक्ति परम आनन्दकारी है, आत्मिक सुख की प्राप्ति इसी से होती है / मैं स्वर्ग आदि के लौकिक सुख को छोडकर अलौकिक सुख की ही इच्छा रखता हूं, अन्य किसी बात से मुझे प्रयोजन नहीं है / संसारी सुख से अघा गया (थक गया) हूं। धर्मात्मा पुरुष को तो एक मोक्ष ही उपादेय है / मैं तो एक मोक्ष का ही अर्थी हूं, इस मंदिरजी बनवाने का यही फल मुझे प्राप्त हो / धर्मात्मा पुरुष धर्म अथवा मोक्ष की ही चाह रखते हैं / मान, बढ़ाई, यश, कीर्ति, नाम, गौरव नहीं चाहते, स्वर्ग -मोक्ष की ही कामना करते हैं / प्रतिमा (जिन बिम्ब) निर्माण का स्वरूप चौथे काल में प्रतिमाजी के निर्माण का स्वरूप :- आगे प्रतिमाजी के निर्माण के लिये खदान पर जाकर पत्थर लाने का स्वरूप कहते हैं।