Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 51 श्रावक-वर्णनाधिकार कदाचित्त (कोई पुरुष) दान करके कुपात्र का पोषण करता है तथा (उसके फल में) पुण्य चाहता है तो वह पुरुष किस के समान है ? जैसे कोई पुरुष सर्प को दूध पिला कर उसके मुँह से अमृत प्राप्त करना चाहे, अथवा जल को बिलोकर घी निकालना चाहे, पत्थर की नाव पर बैठकर स्वयंभूरमण समुद्र तैरना चाहे, अथवा बज्राग्नि में कमल का बीज बोकर उस कमलिनि के पत्ते की छाया में आराम करने की उमंग रखे, अथवा कल्पवृक्ष को काट कर धतूरा उगावे, अथवा अमृत को छोडकर हलाहल विष का प्याला पीकर अमर होना चाहे, तो क्या उस पुरुष का मनवांछित कार्य सिद्ध होगा ? ___ कार्यसिद्धि (कार्य का फल ) तो कार्य के अनुसार ही होगी (होगा), यदि झूठ ही भ्रम बुद्धि से माने (अन्य प्रकार के वांछित फल चाहे) तो क्या होने वाला है ? जैसे कोई कांच के टुकड़े को चिन्तामणी रत्न जानकर बहुत अनुराग पूर्वक पल्ले से बाँधे रखे, तो क्या वह चिन्तामणी. रत्न हो जावेगा (इच्छित वस्तु दे पावेगा) ? अथवा जैसे बालक मिट्टी, काष्ट, पत्थर के आकार को ही हाथी, घोडा मानकर संतुष्ट हो, वैसे ही कुपात्रदान (का फल) जानना / बहुत क्या कहें ? ___ जिनवाणी में तो ऐसा उपदेश है - हे भाई ! धन-धान्य आदि सामग्री अनिष्ट लगती है तो उसे अंध कुये में डाल दे / तेरा द्रव्य ही जावेगा, अपराध तो नहीं होगा / कुपात्र को दान देने पर धन भी जाता है तथा परलोक में नरक आदि भवों के दु:ख सहने पड़ते हैं / अतः प्राण जावें तो जाओ, पर कुपात्र को दान देना उचित नहीं है, यह न्याय की ही बात है / पात्र तो आहार आदि लेकर मोक्ष का साधन करते हैं, तथा कुपात्र आहार आदि लेकर अनन्त संसार बढ़ाने वाले कार्य करते हैं। कार्य के अनुसार ही कारण के कर्ता दातार को फल लगता है। यदि पात्र को दान दिया तो मानो मोक्ष का ही दान दिया तथा कुपात्र को दान दिया तो वह (दान) अनन्त संसार में उसे डुबोवेगा तथा अन्य जीवों को भी