Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
View full book text
________________ विभिन्न दोषों का स्वरूप रागादि भाव एवं हिंसा की उत्पत्ति टले वही रसोई पवित्र है / जिसमें ये दोनों बढे वही रसोई (भोजन) अपवित्र जानना / अज्ञानी लोग अपनी विषय वासना का पोषण करने के लिये धर्म का आश्रय लेकर अष्टान्हिका, सोलह कारण, दसलक्षण, रत्नत्रय आदि पर्व के दिनों में अच्छे-अच्छे मनमाने नाना प्रकार के महागरिष्ठ, जैसा अन्य दिनों में कभी नहीं मिले, ऐसा तो भोजन करते हैं तथा अच्छे अच्छे वस्त्र आभूषण पहनना, शरीर का श्रृंगार करना आदि करते हैं / पर सावन भादवा आदि एवं अन्य पर्व के दिनों में विषय-कषाय छोडना, संयम का आदर करना (धारण करना), जिन-पूजा, शास्त्राभ्यास करना, जागरण करना, दान देना, वैराग्य बढाना, संसार का स्वरूप अनित्य जानना आदि का नाम धर्म है / विषय-कषायों के पोषण का नाम धर्म नहीं है / झूठ ही अपने को धर्मात्मा मानने से क्या होने वाला है, उसका फल तो खोटा ही लगने वाला है। बाजार के भोजन में दोष आगे हलवाई (बने बनाये मिष्ठान्न आदि बेचने वाले) के हाथ बनी वस्तुयें खाने के दोष बताते हैं - प्रथम तो हलवाई का स्वभाव निर्दय होता है / फिर लोभ का प्रयोजन होता है जिससे विशेष रूप से दया रहित होता है। उनका व्यापार ही महाहिंसा का कारण है. उसका विशेष कथन करते हैं / अनाज सीधा ही खरीद कर लाता है, वह सीधा खरीदा गया अनाज तो बीधा, सूलसलियां पड़ा हुआ, पुराना ही होता है (शोधा हुआ नहीं होता) / अनाज को रात्रि में बिना शोधे ही पीस लेता है / वह आटा, बेसन, मैदा आदि महिने पन्द्रह दिन पर्यन्त पडा ही रहता है तो उसमें अगणित त्रस जीव पैदा हो जाते हैं / फिर उस (जीव पडे) आटा को अनछना मसक (चमडे का पात्र) के पानी से गूंद कर तथा बीधा, सूखा, आला, गीला ईंधन रात्रि में भट्टी में जलाकर चमडे के संपर्क वाले बहुत दिनों के बासी घी में उसे तलता है।