Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
View full book text
________________ 100 ज्ञानानन्द श्रावकाचार तो जहां सदैव गूढ (छुपी हुई -अथवा बहुत) नमी रहे तथा एक पर एक दस बीस पुरुष स्त्री मल-मूत्र क्षेपण करें अथवा ठंडा अथवा गर्म पानी डालें तो ऐसे अशुचि स्थान में जीवों की उत्पत्ति का क्या कहना, हिंसा के दोष का क्या पूछना तथा उसके पाप का क्या कहना ? अतः इसप्रकार का बड़ा पापा जानकर स्वप्न में भी (ऐसे) सेतखाने जाना (का उपयोग करना) उचित नहीं है / पंच स्थावर जीवों का प्रमाण आगे निगोद आदि पांच स्थावर जीवों के प्रमाण का वर्णन करते हैं / खदान की मिट्टी के एक ढेले में असंख्यात पृथ्वीकाय के जीव पाये जाते हैं / यदि वे जीव तिजारा के दाने के बराबर का देह बनालें तो जम्बूद्वीप में नहीं समावें अथवा संख्यात-असंख्यात द्वीप-समुद्रों में नहीं समावें। इतने ही जीव एक पानी की बूंद में अथवा एक अग्नि की चिन्गारी में अथवा थोडी-सी हवा में अथवा प्रत्येक वनस्पति की सुई की नोंक मात्र भाग में पाये जाते हैं। गाजर, प्याज, मूली, शकरकंद, अदरक, जुवारा (जुवार के भुट्टे), कोपल आदि वनस्पति में उनसे भी अनन्त गुणे जीव पाये जाते हैं; ऐसा जानकर पांच स्थावर जीवों की भी विशेष रूप से दया पालनी चाहिये। बिना प्रयोजन के स्थावरों की भी विराधना नहीं करना चाहिये। त्रस जीवों की तो सर्वप्रकार ही विराधना नहीं करना चाहिये। स्थावर की हिंसा की अपेक्षा त्रस की हिंसा में बडा दोष है / उसमें भी आरम्भी हिंसा में निरपराध जीवों की हिंसा का तीव्र पाप है। (स्याही रखने का पात्र) के दोष आगे दवात - (लिखने की स्याही रखने का पात्र) के दोष दिखाते हैं / दवात में दो चार वर्ष पर्यन्त जीव रहते हैं / उसमें असंख्यात त्रस जीव तथा अनन्त निगोद राशि सदैव उत्पन्न होती है। जैसे नीलगर (रंगरेज) का कपडे रंगने का पात्र होता है उसके हजारवें अथवा पचासवें भाग के