Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ विभिन्न दोषों का स्वरूप 105 रजस्वला स्त्री तीन दिन तथा प्रसूति स्त्री डेढ मास पर्यन्त मंदिरजी में नहीं जावे / गुप्त अंग नहीं दिखाना, पलंग आदि नहीं बिछाना / ज्योतिष, वैद्यक, मंत्र, तंत्र नहीं करना। जल-क्रीडा आदि किसी प्रकार की क्रीडा नहीं करना। लूले-पांगले, विकलांग, अधिक अंग वाले, बौने, अंधे, बहरे, गूंगे, कांणे, मांजरे, शूद्र वर्ण, संकर वर्ण पुरुष स्नान आदि उज्जवल वस्त्र पहन कर भी श्रीजी (प्रतिमाजी) की प्रक्षाल अभिषेक आदि एवं अष्ट द्रव्यों से पूजन आदि नहीं करें। अपने घर से विनय पूर्वक स्वच्छ द्रव्य लाकर (घर के ही) कपडे पहने प्रतिमाजी के सम्मुख खडे होकर द्रव्य आगे रख नाना प्रकार स्तुति पाठ पढकर नमस्कार कर वापस घर जावे। इसप्रकार ही द्रव्य-पूजा एवं स्तुति-पाठ करें। रात्रि में पूजा नहीं करना / मंदिर से छूते हुये चारों ओर ही गृहस्थ लोगों के मकान घर नहीं हो, बीच में गली (रास्ता हो) जो सर्वत्र मल-मूत्र आदि अशुचि वस्तुओं से रहित पवित्र हो / बिना छने जल से मंदिरजी का कोई काम नहीं कराना। जिन-पूजन आदि सर्व धार्मिक कार्यों में भी बहुत त्रस हिंसा हो वे सर्व कार्य त्यागना योग्य है / इसप्रकार चौरासी आसादना के दोष जानना चाहिए। भावार्थ :- सावध योग को लिये जो-जो भी कार्य होते हैं उन सभी को जिन मंदिरजी में करना त्यागने योग्य है। अन्य स्थानों पर किये गये अथवा उपार्जित पापों की उपशांति के लिये तो जिन मंदिरजी कारण है, तथा जो पाप जिन मंदिरजी में ही उपार्जित किये गये हों उन्हें उपशांत करने में अन्य कोई समर्थ नहीं है, भुगतने ही पडेंगे। जैसे कोई पुरुष किसी से लड लिया हो तो उसका अपराध राजा के पास जाकर माफ कराया जा सकता है, पर यदि वह राजा से ही लडा हो तो उस अपराध को माफ कराने के लिये कोई ठिकाना नहीं, उसका फल तो बंदीखाने में रखा जाना ही है / ऐसा जानकर अपने हित के लिये