Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
View full book text
________________ 104 ज्ञानानन्द श्रावकाचार के लिये ऐसा संकल्प किया था उसे चढावे नहीं, तो उसका अंश मात्र भी घर में रह जाने पर निर्माल्य के दोष के सदृश्य दोष जानना / निर्माल्य के ग्रहण के सदृश्य अन्य कोई पाप नहीं है, वह पाप अनन्त संसार में रुलाता है। देव-गुरु-शास्त्र को देखकर तत्काल ही उठ खडा होना चाहिये तथा हाथ जोडकर नमस्कार करना चाहिये / स्त्रियां साडी ओढकर मंदिरजी में आवें तथा उसके ऊपर ओढणी आदि भी ओढें / पाग (पगडी) बांधकर पूजन नहीं करना / सरागी पुरुषों को स्नान, चंदन का तिलक तथा आभूषण श्रृंगार के बिना पूजन करना चाहिये, त्यागी पुरुषों के लिये यह आवश्यक नहीं है / पूजा के अतिरिक्त मंदिर जी की केशर-चंदन आदि का तिलक नहीं लगाना। (नोट :- ऐसे प्रतीत होता है कि यहां कुछ उल्टा लिखने में आ गया है, सरागी पुरुषों को तो चंदन, आभूषण आदि सहित (पहन कर) पूजा करना, बिना लगाये न करना तथा त्यागी इन्हें लगावे अथवा न लगावे, ऐसा होना अधिक उचित प्रतीत होता है, यह बात अगले वाक्य से भी मेल खाती है / ज्ञानी जन यथार्थ अर्थ ग्रहण करें, ऐसा निवेदन है।) ___ मंदिरजी में चढाये पुष्प अपने टांकने के लिये नहीं लें, इनके ग्रहण से भी निर्माल्य का दोष लगता है / देव-मंदिर में वायु-सरना आदि अशुचि क्रिया नहीं करना / गेंद, गेंदडी, चौपड, शतरंज, गंजफा आदि किसी भी प्रकार के खेल नहीं खेलना तथा शर्त भी नहीं करना / मंदिरजी में भांड क्रिया नहीं करना। रैकार, तूकार, कठोर वचन अथवा तर्क लिये वचन, मर्म छेदने वाले वचन, मजाक, झूठा विवाद, ईर्ष्या, अदया, मृषा, किसी को रोकने, बांधने, लडने आदि के वचन नहीं बोलना, कुलांट नहीं खाना, पांवों से दोड नहीं करना, न पांव दबवाना / हड्डी, चमडे, ऊन, केश, आदि मंदिर में नहीं ले जाना। मंदिर जी में बिना प्रयोजन इधरउधर घूमना फिरना नहीं।