Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ विभिन्न दोषों का स्वरूप 87 रसोई करने की विधि आगे रसोई बनाने की विधि का कथन करते हैं - जहां जीवों की उत्पत्ति न हो ऐसे स्थान में छोटे-बड़े गड्डे रहित पक्की अथवा कच्ची साफ जगह देखकर ऊपर चंदोवा बांधकर मिट्टी का अथवा लोहे का चूल्हा (अंगीठी) रखे / पक्के स्थान को तो जीव-जन्तु देखकर कोमल झाडू से बुहार कर अल्प पानी से उस स्थान को गीले कपडे से पोंछले अथवा धो डालें। यदि कच्चा (मिट्टी वाला) स्थान हो तो अल्प शुद्ध मिट्टी से दया पूर्वक लीपे / फिर उज्जवल कपडे पहन अल्प पानी से हाथ धोकर सर्व बरतनों को मांज कर रसोई में रखें / पहले कहे अनुसार आटा, चावल, दाल, घी, ईंधन को शुद्धकर रसोई में बैठे / रसोई बनाने के लिये जितना पानी चाहिये उतना छानकर लोंग, डोडा, मिरच, कायफल, कसेला, नमक, खटाई आदि में से एक दो वस्तु से प्रासुक करें। प्रासुक किये गये पानी की मर्यादा दो पहर की है। __ खाना बनाने में दो चार घडी का समय लगता है तथा छने पानी की मर्यादा दो घडी की ही है, अतः प्रासुक पानी से ही खाना बनाना उचित है / प्रासुक पानी को दो पहर में ही काम में ले लें, अधिक समय रखने से इसमें जीव उत्पन्न हो जाते हैं, तथा इसकी जिवाणी भी नहीं हो पाती है / इसप्रकार दया पूर्वक क्रिया सहित रसोई बनावें। रसोई बनाने वाले को उज्जवल कपडे पहन हाथ-पांव धोकर पात्र को अथवा दुःखित जीव को दान देकर, राग-भाव छोडकर, चौकी पाटा बिछाकर, पाटे पर बैठकर तथा चौकी के ऊपर थाली रखकर, थाली पर दृष्टि रखते हुये जीव-जन्तु देखते हुये मौनपूर्वक संयम सहित भोजन करे / __ऐसा न हो कि दान दिये बिना अघोरी की भांति स्वयं तो खा ले तथा पात्र या दुःखी प्राणी दरवाजे पर आकर वापस (खाली ही) चला जावे / ऐसा कृपण महारागी, महाविषयी दंड देने योग्य है, अतः धर्मात्मा पुरुष