Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ श्रावक-वर्णनाधिकार के ही होते हैं तथा उत्कृष्ट श्रावक के व्रत धारण करते हैं / क्षुल्लक के व्रत स्पर्श शूद्र भी ग्रहण करते हैं / अस्पर्श शूद्र को प्रथम प्रतिमा का धारण एवं जघन्य श्रावक के व्रत भी संभव नहीं होते हैं तथा नियम पूर्वक प्रतिज्ञा का पालन भी नहीं कर पाते है / बडे सैनी पंचेन्द्रिय तिर्यन्चों में ज्ञान के धारकों को भी मध्यम श्रावक के व्रत होते हैं, देखो श्रावक की तो यह वृत्ति है / कुमार्गी ऐलक क्षुल्लकों की वृत्ति - तथा महापापी, महाकषायी, महा मिथ्यादृष्टि, महा परिग्रही, महाविषयी, देव-गुरु-धर्म के अविनयी, महातृष्णावान, महालोभी, स्त्री के रागी, महामानी, गृहस्थों जैसे वैभव वाले, महाविकल, सप्त व्यसनों से पूर्ण तथा मंत्र-तंत्र ज्योतिष, वैद्यक, कामना आदि के गंडे-तावीज करके बेचारे भोले जीवों को मोहित करते हैं, बहकाते हैं, उनके किसी भी प्रकार का संवर नहीं है। तृष्णा अग्नि से जिनकी आत्मा दग्ध हो रही है, वे अपने लोभ के वश ग्रहस्थों से भला मनवाने के बहाने त्रैलोक्य द्वारा पूज्य श्री तीर्थकर देव की शान्त मूर्ति, जिन बिम्ब उसके (गृहस्थ के) घर ले जाकर उसे दर्शन कराते हैं, फिर अपना मतलव साधते हैं (स्वार्थ की सिद्धि करते हैं) / वे स्वयं तो घोर से घोर संसार में डूबे ही हैं, भोले जीवों को भी संसार में डुबाते हैं। दो-चार गांवों के ठाकुर भी सेवक के अपने स्वार्थवश सेवक द्वारा लेजाये जाने पर भी उसके घर जाते नहीं हैं, तो वे सर्वोत्कृष्ट देव हैं, इन्हें कैसे ले जाया जा सकता है ? इसके समान पाप न तो हुआ है न होगा। सो (ये) कैसी-कैसी विपर्यय की बातें (विपरीत बातें) करते हैं। आजीविका के लिये गृहस्थों के घर जाकर शास्त्र पढते हैं (सुनाते हैं) तथा शास्त्रों में (उपदेश का अभिप्राय) तो विषय-कषाय, राग-द्वेष, मोह छडाने का है, पर वे पापी उल्टे विषय-कषाय, राग-द्वेष, मोह का पोषण करते हैं / ऐसा कहते हैं - अभी तो पंचम काल है, न ऐसे गुरु हैं और न ही ऐसे श्रावक हैं / स्वयं को गुरु मनवाने के लिये गृहस्थ को भी धर्म से विमुख करते हैं।