Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 81 विभिन्न दोषों का स्वरूप लाखों, करोडों आदि अनगिणत लट आदि कलबलाते त्रस जीव आंखों से देखे जा सकते हैं। तब दो चार वर्ष से संचित किये सैकडों मण (मण लगभग 37 किलो वजन के बराबर होता है) गोबर, विष्टा आदि अशुचि वस्तुयें एक पर एक एकत्रित हुई गर्मी, सर्दी सहित पडी रही हों उसमें जीवों की उत्पत्ति का वर्णन कौन कर सकता है। उस प्रकार के जीवों की राशि को फावडे से काट-काट कर महानिर्दयी हुआ खेत में बिखेरे (फैलाकर डाले) तथा उस पर लकडी का पाटा फिरावे, बाद में उसमें बीज बोये, मार्गशीर्ष के महिने से लेकर फाल्गुण मास पर्यन्त बावडी, तलाब के अनछने जल से प्रतिदिन सिंचाई करे / ऐसा करने से पहले जो जल में त्रस-स्थावर जीव हों, वे तो प्रलय को प्राप्त हों ही तथा सर्दी के निमित्त से त्रस-स्थावर जीव पुनः उत्पन्न हो जाते हैं / इसीप्रकार चार पांच माह तक पहले के उत्पन्न हुये जीव तो मरते जाते हैं तथा नये-नये उत्पन्न होते जाते हैं। ऐसा होने पर भी अनेक उपद्रवों के कारण खेती निर्विघ्न घर पर आ ही जावे अथवा न भी आवे / कदाचित आ भी जावे तो उसमें से सरकार का लगान चुक भी पावे, न भी चुक पावे / इसप्रकार इसका नफा तो ऐसा अल्प है तथा पाप ऊपर कहे अनुसार (बहुत अधिक) है / असंख्यात त्रसजीव, अनन्तानन्त निगोद राशि आदि त्रस-स्थावर जीवों का घात होने पर एक हिस्सा अनाज अपने हिस्से आता है / ____ भावार्थ :- इतनी हिंसा होने पर अनाज का एक-एक कण पैदा होता है, फिर भी कोई यह जाने कि खेती करने पर सुख होगा तो उससे कहते हैं :- जहां तक (मनुष्य में) खेती करने के संस्कार रहते हैं, वहां तक उसका राक्षस, दैत्य,दरिद्र, कलंदर (सपेरा) जैसा स्वरूप जानना तथा अगले भवों में नरक आदि फल मिलता है / अतः ज्ञानी विचक्षण पुरुष खेती करना छोडें / खेती का सामान संग्रह करने के दोष भी इसी प्रकार का जानना, जो प्रत्यक्ष नजर आते हैं, उनका क्या लिखना? तथा कुआ,