Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 80 ज्ञानानन्द श्रावकाचार __ खेती के दोष. आगे खेती के दोषों का कथन करते हैं - अषाढ के मास में प्रथम वर्षा हो जाने पर उसके निमित्त से सारी पृथ्वी जीवमय हो जाती है, एक अंगुल जमीन भी जीव रहित नहीं बचती / उस भूमि को हल से फाडते (जोतते) हैं, जिससे अर्थात भूमि खुदने से सर्वत्र त्रस तथा स्थावर जीव नाश को प्राप्त होते हैं / पुनः पूर्ववत नये जीव उत्पन्न हो जाते हैं / दूसरी वर्षा में वे भी सारे मरण को प्राप्त होते हैं / पुन: जीवों की उत्पत्ति होती है, पुनः हल के द्वारा मारे जाते हैं, ऐसी भूमि में बीज बोया जाता है, जिससे सब स्थानों पर अन्न के अंकुर अनन्त निगोद राशि सहित उत्पन्न होते हैं। ___पुन: वर्षा होने पर उससे अगणित त्रस-स्थावर जीव उत्पन्न हो जाते हैं, निदाई करने पर वे समस्त जीव मारे जाते हैं / पुन: वर्षा से ऐसे ही अन्य जीव उत्पन्न होते हैं तथा पुन: धूप अथवा निंदाई से मरण को प्राप्त होते हैं / इसीप्रकार चतुर्मास पूर्ण होता है / बाद में सारा खेत जो त्रसस्थावर जीवों से भरा होता है, उसे हंसिया के द्वारा काटा जाता है, जिसे काटने से सारे जीव दल-मारे जाते हैं / इसप्रकार तो चतुर्मास की खेती का स्वरूप जानना / आगे गर्मी के मौसम की खेती का स्वरूप कहते हैं - पहले तो श्रावण के महिने से लेकर कार्तिक माह तक पांच सात बार हल, कुश, फावडे आदि से भूमि को आमने-सामने चूर्ण करते हैं। उसके बाद उसके लिये दो-चार वर्ष पहले से संचित किया खाद अथवा दो-चार वर्ष से एकत्रित की हुई गोबर आदि खेत में डालते हैं / इससे उस मिट्टी की स्थिति का क्या पूछना ? जितना उस मिट्टी का वजन हो उतने ही लट आदि त्रस जीव जानना / एक दो दिन की विष्टा, गोबर आदि प्रकट पड़ा रह जाता है, तो उसमें