Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 82 ज्ञानानन्द श्रावकाचार बावडी, तलाब बनाने के पाप से खेती-मकान बनाने के पाप को असंख्यात, अनन्त गुणा पाप जानना / / (इति खेती दोष / ) रसोई बनाने की विधि आगे खाना बनाने की विधि बताते हैं / खाना बनाने में तीन बातों के द्वारा विशेष पाप होता है। एक तो बिना शोधे (शुद्ध किये) अन्न का प्रयोग, दूसरा विवेक रहित अनछने जल का प्रयोग, तीसरा बिना देखा ईंधन का प्रयोग। इन तीन पापों पूर्वक बनी रसोई (भोजन) मांस के सदृश्य जानना तथा तीनों रहित जो भोजन तैयार हो उसे शुद्ध भोजन जानना। उस (भोजन) का स्वरूप कहते हैं / __प्रथम तो अनाज का बहुत संग्रह न करे, दस दिन अथवा पांच दिन के योग्य अनाज दस पांच स्थानों (दुकानों) पर देखकर बिना घुना हुआ लावे / फिर दिन के समय ही अच्छी प्रकार शोध बीन कर दिन में ही चक्की को सूखे कपडे से पोंछकर पीसे / लोहे, पीतल, बांस आदि की चर्म रहित चलनी से छान ले / इसप्रकार तो आटे की क्रिया जानना / ईंधन :- छाने (गोबर की थापडी) को छोडकर, दरार रहित प्रासुक लकडी अथवा कोयला है वह शुद्ध ईंधन है, छाने, गोबर रसोई में अपवित्र हैं, उनमें जीवों की उत्पत्ति विशेष होती है / अन्तर्मुहूर्त से लेकर जहां पर्यन्त उनमें सर्दी (नमी) रहे, तब तक उनमें अनेक जीव उत्पन्न होते रहते हैं। फिर गोबर के सूखने से सारे जीवों का नाश होता है / सूखने के बाद उन (मृतक जीवों) के कलेवर जैसे बडे-बडे गिंडोले आदि के कलेवर, आदि आंखों से देखे जाते हैं / बाद में चतुर्मास में सर्दी (ठंडक नमी) के निमित्त से असंख्यात कुंथिया, लट आदि त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। अतः छानों (कंडों) का जलाना तो हिंसा के दोष के कारण सर्वप्रकार छोडने योग्य है।