Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ श्रावक-वर्णनाधिकार 53 क्षीण हैं, बल रहित हैं / ऐसे दुःखी प्राणियों को देखकर दयालु पुरुष भयभीत होते हैं एवं वे उनका जैसा दुःख स्वयं भी अनुभव करते हैं / तथा घबराये चित्त वाले होते हुये वे दयालु पुरुष जिस-तिस प्रकार (जैसे हो सके वैसे) अपनी शक्ति के अनुसार उनका दुःख दूर करने का प्रयत्न करते हैं / ___ कोई प्राणी किसी जीव को मारता हो अथवा बंदी बनाता हो तो उसको जिस-तिस प्रकार छुडाते हैं / दुःखी जीवों को देखने के बाद निर्दय होते हुये आगे नहीं चले जाते / जिनका हृदय बज्र के समान है ऐसे निर्दयी पुरुषों को ऐसे (दुखित) प्राणियों को भी देखकर दया नहीं उत्पन्न होती तथा वे ऐसा विचार करते हैं कि ये पापी हैं, पूर्व में किये पापों का फल तो भोगेंगे ही। वे ऐसा विचार नहीं करते कि मैने भी पूर्व में ऐसे ही दुःख पाये होंगे तथा फिर पाऊंगा / अत: आचार्य कहते हैं कि ऐसी निर्दय परिणति को धिक्कार हो / जिनधर्म का मूल तो एक दया ही है, जिनके हृदय में दया नहीं है, वे जैन नहीं हैं / बिना दया के जैन नहीं होता, ऐसा नियम है। दान का स्वरूप आगे दान का स्वरूप बताते हैं : (1) औषध दान :- रोगी पुरुषों को औषध दान दो / भिन्न-भिन्न प्रकार की औषधियाँ तैयार करा कर रखो, तथा रोगी द्वारा आकर मांगे जाने पर दो / अथवा वैद्य, नौकर (बीमार की सेवा कर सकने वाला ) रख कर उसका इलाज कराओ / इसके फल में देव आदि का निरोग शरीर मिलता है। उसको आयु पर्यन्त रोग की उत्पत्ति नहीं होती / (यदि अगले भव में) मनुष्य शरीर प्राप्त करे तो उसके अपने शरीर में किसी प्रकार के रोग की उत्पत्ति नहीं होती एवं उसके शरीर के स्पर्श से अथवा नहाने के जल से अन्य जीवों के अनेक प्रकार के रोग क्षण मात्र में दूर हो जाते हैं / (2) आहार दान :- क्षुधा-तृषा से पीडित प्राणी को शुद्ध अन्न तथा जल दो।