Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
View full book text
________________ 56 ज्ञानानन्द श्रावकाचार चिता में वह जला जा रहा है / इसप्रकार श्मशान में पडे मुर्दे की उपमा इस पर भली प्रकार घटित होती है / ___अत: ऐसी सर्व प्रकार से निंदित अवस्था जानकर कृपणता को छोडकर परलोक का भय ठान (भली प्रकार विश्वास कर) पर-द्रव्य का ममत्व नहीं करना चाहिये / ममत्व ही संसार का बीज है / ऐसी हेय-उपादेय बुद्धि विचार कर शीघ्र ही दान देना तथा परलोक का फल प्राप्त कर लेना चाहिये, अन्यथा यह सर्व धन सामग्री काल रूपी दावाग्नि में भस्म हो जावेगी (या तो यह तुझे छोड जावेगी अथवा तू उसे छोड कर मृत्यु को प्राप्त हो जावेगा ), बाद में तुम बहुत पछताओगे। यह पछतावा कैसा है ? जैसे कोई आकर समुद्र के किनारे बैठ कर कौआ उडाने के लिये चिन्तामणी रत्न समुद्र में फैंक दे, फिर रत्न के लिये विलाप करे, किन्तु स्वप्न मात्र में भी चिन्तामणी रत्न समुद्र से वापस प्राप्त होता नहीं, ऐसा जानना / बहुत क्या कहें ? उदार पुरुष ही सराहने योग्य हैं, वे पुरुष देव के समान हैं, देव उनकी कीर्ति गाते हैं / इसप्रकार अतिथि-विभाग व्रत का कथन पूर्ण हुआ / (दूसरी प्रतिमा के) बारह व्रतों का ऐसा स्वरूप जानना / ____ अब आगे श्रावक के (उपरोक्त) बारह व्रतों का तथा सम्यक्त्व के एवं अन्त में समाधिमरण के (प्रत्येक के पांच-पांच अर्थात 14 गुणा 5 = 70) सत्तर अतिचारों का स्वरूप कहते हैं : (नोट :- जिन कार्यों से व्रत में दोष तो लगे पर व्रत का खंडन न हो, उनको अतिचार कहते हैं, एवं जिन कार्यों से व्रत ही भंग हो जावे उन्हें अनाचार कहते हैं) सम्यक्त्व के अतिचार पहले सम्यक्त्व के पांच अतिचार कहते हैं / (1) उसमें शंका अर्थात जिनवचनों में संदेह करना (2) कांक्षा अर्थात भोगाभिलाषा (3)