Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 54 ज्ञानानन्द श्रावकाचार भावार्थ :- अन्न तो ऐसा दो जो त्रस जीवों तथा हरितकाय से रहित हो / यथायोग्य अन्न, रोटी, छने जल सहित दो / इसका फल क्षुधा से रहित देव पद की प्राप्ति है / (यदि अगले भव में) मनुष्य हो तो युगलिया (भोग भूमि में मनुष्य तथा तिर्यन्च जोडे सहित ही उत्पन्न होते हैं ), तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि पद का धारक महाभोग सामग्री वाला होता है / (3) अभय दान :- मारते जीव को छुडावे अथवा स्वयं न मारे तो उसका फल महापराक्रमी वीर्य (शक्ति) का धारक देव, मनुष्य होना है, जिसे किसी प्रकार की शंका (भय) न हो ऐसा पद पाता है / (4) ज्ञान दान :- यदि स्वयं पढा हुआ हो तो औरों को सिखावे एवं तत्वोपदेश देकर जिनमार्ग में लगावे / स्वयं शास्त्र लिखे अथवा उनका शोधन करे अथवा गूढ काव्य ग्रन्थों का अर्थ प्रकट करने वाली टीकायें बनावे, धन आदि खर्च कर नाना प्रकार के नये शास्त्र लिखवावे एवं धर्मात्मा पुरुषों को पढने (स्वाध्याय) के लिये दे / यह ज्ञान दान सर्वात्कृष्ट है / इसका फल भी ज्ञान है। ज्ञान दान के प्रभाव से बिना अभ्यास किये ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान प्रकट हो जाते हैं तथा फिर शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है। ___ पर (अन्य) को सुखी करने पर जगत भी उसके लिये सुखदाता (अनुकूल) के रूप में परिणमित होता है। गुरु आदि का विनय करने पर स्वयं भी जगत द्वारा विनय किये जाने योग्य होता है। ___ भगवान के चमर, छत्र, सिहासन, वाध्य यंत्र, चंदोवा, झारी, रकाबी आदि उपकरण चढाने पर भी ऐसा पद प्राप्त करता है कि उसके ऊपर छत्र फिरे, चमर दुरे अथवा सिंहासन पर बैठकर देव, विद्याधरों का अधिपति होता है। जिन-मंदिर बनवाने से अथवा भगवान की पूजा करने से स्वयं भी त्रैलोक्य पूज्य पद को प्राप्त करता है।