Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ श्रावक-वर्णनाधिकार करना चाहिये / (4) विनयशुद्धि अर्थात देव-गुरु-धर्म तथा दर्शनज्ञान-चारित्र के प्रति विनय लिये सामायिक करना / (5) मनःशुद्धिअर्थात मन को राग-द्वेष रहित रखना। (6) वचनशुद्धि अर्थात सावध वचन नहीं बोलना (7) कायशुद्धि अर्थात बिना देखे बिना शोधे पांव न उठाना न रखना / इसप्रकार सात शुद्धियों का स्वरूप जानना / कायोत्सर्ग के दोष आगे कायोत्सर्ग के बाईस (22) दोषों का कथन करते हैं - (1) कुड्याश्रित अर्थात दीवार का आश्रय (सहारा) लेना (2) लतावक्र अर्थात बेल की भांति हिलते रहना (3) स्तंभाश्रित अर्थात स्तंभ का सहारा लेना (4) कुंचित अर्थात शरीर को संकोचना (5) स्तनप्रेक्षा अर्थात कुच को देखना (6) काकदृष्टि अर्थात कौये की तरह देखना (7) शीर्षकंपित अर्थात मस्तक को कंपाना (8) धुराकंधर अर्थात कंधों को नीचा करना (9) उन्मत्त अर्थात मतवाले की तरह चेष्ठा करना (10) पिशाच अर्थात भूत की तरह चेष्ठा करना (11) अष्टदिशेक्षणअर्थात आठों दिशाओं में (इधर-उधर) देखना। ___(12) ग्रीवा-गमन अर्थात गर्दन को घुमाना (13) मूक-संज्ञाअर्थात गूंगे की तरह इशारा (संकेत) करना (14) अंगुलि-चालनअर्थात अंगुलियों को चलाना (15) निष्ठीवन अर्थात खखारना (खांसना) (16) खलितन अर्थात कफ निकालना (17) सारीगुह्य गूहन अर्थात गुह्य अंग निकालना (18) कपित्थमुष्टि अर्थात काथोडी (कैथ) की तरह मुट्ठी बांधना (19) श्रृंखलिताप अर्थात पाद का सांकल की तरह होना (20) मालिकोचलन अर्थात कभी पीठ या मस्तक के ऊपर किसी का आश्रय लेना (21) अंग-स्पर्शअर्थात अपने अंगों का स्पर्श करना (22) घोटक अर्थात घोडे की भांति पांव रखना / कायोत्सर्ग के ये बाईस दोष जानना /