Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 22 ज्ञानानन्द श्रावकाचार हित, मित, दया अमृत से झरते ऐसे वचन, जो भव्य जीवों को आनन्दकारी हैं, से इसप्रकार (उसे) सम्बोधित करते हैं :__हे पुत्र ! हे भव्य ! तू स्वयं के संसार समुद्र में मत डूबो / तुझे इन परिणामों का बुरा फल मिलेगा। तू निकट भव्य है तथा तेरी आयु भी तुच्छ शेष रही है, अत: अब सावधान होकर जिनप्रणीत धर्म को स्वीकार कर / इस धर्म के बिना तू अनादि काल से संसार में रुला है तथा नरक निगोद आदि नाना प्रकार के दु:ख सहे हैं, उन्हें तू भूल गया है। श्री गुरु के ऐसे दयालु वचन सुनकर वह पुरुष संसार के भय से कंपायमान होता हुआ शीघ्र ही गुरु के चरणों में नमस्कार करता हुआ तथा अपने किये अपराध की निन्दा करता हुआ हाथ जोड कर ऐसे वचन कहता है - हे प्रभु ! हे दयासागर ! मुझ पर दया करो, क्षमा करो / हाय हाय ! अब मैं क्या करूं, मेरी इस पाप से कैसे निर्वृत्ति होगी / मेरे कौनसे पाप का उदय आया है कि मुझे यह खोटी बुद्धि उत्पन्न हुई / बिना अपराध ही मैने मुनिराज पर उपसर्ग किया / जिनके चरणों की सेवा इन्द्र आदि को भी दुर्लभ है, उन परम उपकारी, त्रैलोक्य द्वारा पूज्य पर मुझ रंक ने क्या जानकर उपसर्ग किया / हाय-हाय ! अब मेरा क्या होगा, मैं किस गति में जाऊंगा ? इत्यादि वह पुरुष बहुत विलाप करते हुये हाथ रगडते हुये बारम्बार मुनिराज के चरणों में नमस्कार करता है। __जैसे कोई नदी में डूबता पुरुष जहाज का अवलम्बन प्राप्त कर ले वैसे ही (वह पुरुष) गुरु के चरणों का अवलम्बन करता हुआ यह निश्चय जानता है कि अब तो मुझे एक इन्हीं की शरण है, अन्य की शरण नहीं, इस अपराध से बचना तो इन्हीं के चरणों की सेवा से है अन्य कोई उपाय नहीं, मेरे दु:ख दूर करने में ये ही समर्थ हैं। इस पुरुष की धर्म बुद्धि देख कर श्री गुरु फिर कहते हैं - हे पुत्र ! हे वत्स ! तू डर मत, तेरे संसार का अन्त निकट आ गया है, इसलिये अब तू धर्मामृत रसायन का पान कर तथा जन्म-मरण के दु:ख का नाश कर /