Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 48 ज्ञानानन्द श्रावकाचार किसी भी प्रकार धर्म में द्रव्य (धन) खर्च न करे, तृष्णा के वश हुआ धन कमा-कमा कर संचित ही करना चाहे तो वह पुरुष मर कर सर्प होता है , बाद में परम्परा से नरक जाता है, निगोद जाता है / जहां नाना प्रकार के छेदन, भेदन, मारन, ताडन, शूल रोपण आदि तो नरक के दुःख हैं तथा मन, कान, आंख, नाक, जिह्वा का तो अभाव होता है, तथा केवल स्पर्श इन्द्रिय के द्वारा एक अक्षर के अनन्तवें भाग ही ज्ञान शेष रह जाता है, उसमें भी आकुलता पावे, ऐसी एकेन्द्रिय पर्याय है / (एकेन्द्रिय पर्याय में) नरक से भी विशेष दु:ख जानना / वह लोभी पुरुष ऐसी नरक निगोद पर्याय में अनन्त काल तक भ्रमण करता है / वहां से दो इन्द्रिय आदि पर्याय पाना महादुर्लभ है / अतः लोभ परिणति को अवश्य त्यागना योग्य है। जो जीव नरक, तिर्यंच गति में ही वापस जाने योग्य है, उसका तो यह स्वभाव होता है कि उसे धन बहुत प्रिय लगता है / वह धन के लिये अपने प्राणों का भी त्याग करता है, परन्तु धन का ममत्व छोडता नहीं, तो वह बेचारा रंक, गरीब, कृपण, हीनबुद्धि, महामोही परमार्थ के लिये दान कैसे करेगा ? उसके द्वारा चांदी का रुपया कैसे दिया जावेगा ? वह कृपण और कैसा है ? मोह रूपी मक्खी के समान उसका स्वभाव है अथवा उसकी परिणति चींटी के समान है। __दातार की महिमा :- जो दातार पुरुष हैं वे देव गति से आये हैं अथवा देवगति या मोक्षगति में जाने योग्य हैं, यह न्याय ही है / तिर्यंच गति से आये जीव का उदार चित्त कैसे होगा ? जहां बेचारे ने असंख्यात, अनन्त काल पर्यंत कोई भी भोग सामग्री देखी नहीं तथा अब मिलने की आशा नहीं, तो उसकी तृष्णा रूपी अग्नि किंचित विषय सुख से कैसे बुझेगी ? तथा असंख्यात वर्ष पर्यन्त अहमिंद्र आदि देव-पुनीत आनन्द सुख भोगने वाले ऐसे जीव मनुष्य पर्याय जो हड्डियों, मांस, चमडे का पिंड, मल मूत्र से पूरित ऐसे शरीर का पोषण करने में कैसे आसक्त होंगे ? कंकर, पत्थर आदि द्रव्यों में अनुरागी कैसे हों ?