Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ द्वितीय अधिकार : श्रावक-वर्णनाधिकार वंदित श्री जिनदेव पद कहूं श्रावकाचार / पापारंभ सबै मिटैं, कटे कर्म अघ-छार / / अपने इष्ट देव को नमस्कार करके सामान्यरूप से श्रावकाचार का कथन करता हूँ। सो हे भव्य, तू सुन ! श्रावक तीन प्रकार के होते हैं - (1) पाक्षिक (2) नैष्टिक (3) साधक / पाक्षिक श्रावक को देव-गुरु-धर्म की प्रतीति तो यथार्थ होती है, पर आठ मूलगुणों और सात व्यसनों में अतिचार लगते (हो सकते) हैं। नैष्टिक श्रावक के मूलगुणों तथा सात व्यसनों में अतिचार नहीं लगते हैं / उसके ग्यारह भेद होते हैं, जिनका वर्णन आगे करूंगा। साधक श्रावकं अन्तिम समय में सन्यास मरण करता है। ___ इसप्रकार ये तीनों श्रावक देव-गुरु-धर्म की प्रतीति सहित तथा सम्यक्त्व के आठ अंगों सहित हैं। उसके (सम्यक्त्व के आठ अंगों के) नाम कहता हूं - (1) नि:शंकित (2) नि:कांक्षित (3) निर्विचिकित्सा (4) अमूढदृष्टि (5) उपगूहन (6) स्थितिकरण (7) वात्सल्य (8) प्रभावना। ये आठ अंग हैं। इसके साथ ही सम्यक्त्व के आठ गुण भी होते हैं / उन (आठ गुणों) के नाम हैं - (1) करुणा (2) वात्सल्य (3) सज्जनता (4) आपनिंदा (5) समता (6) भक्ति (7) विरागता (8) धर्मानुराग / अब (सम्यक्त्व को) पच्चीस दोष लगते हैं उनके नाम कहता हूं - (1) जाति (2) लाभ (3) कुल (4) रूप (5) तप (6) बल (7) विद्या (8) अधिकार, इन आठ के गर्व से आठ तो मद जानना / (9) शंका (10) कांक्षा (11) जुगुप्सा (12) मूढदृष्टि (13) परदोष-भाषण (14) अस्थिरता (15) वात्सल्य रहित (16) प्रभावना रहित - ये आठ मल हैं,