Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ 26 ज्ञानानन्द श्रावकाचार शास्त्र की महिमा यह शास्त्र कैसा है ? क्षीर समुद्र की शोभा को धारण करता है / (क्षीर) समुद्र कैसा है ? अत्यन्त गंभीर है, निर्मल जल से भरा है, तथा अनेक तरंगों के समूह से व्याप्त है / उसके जल को श्री तीर्थंकर देव भी अंगीकार करते हैं / उसीप्रकार यह शास्त्र भी अर्थ में गंभीर है तथा स्वरूप के रस से पूर्ण भरा है वही इसका जल है / सर्व दोष रहित अत्यन्त निर्मल है. ज्ञान लहरों से व्याप्त है. इसका भी तीर्थंकर देव सेवन करते हैं। ऐसे शास्त्र को मेरा नमस्कार हो / किसलिये नमस्कार हो ? ज्ञानानन्द की प्राप्ति के लिये नमस्कार हो, अन्य कुछ प्रयोजन नहीं है। आगे (ग्रन्थ) कर्ता स्वयं के स्वरूप को प्रकट करते हैं और अपना अभिप्राय बताते हैं / मैं कैसा हूं ? ज्ञान ज्योति से प्रकट हुआ हूँ, अत: ज्ञान को ही चाहता हूं / ज्ञान ही मेरा निज स्वरूप है, अत: ज्ञान अनुभवन से मुझे ज्ञान की प्राप्ति हो / मैं तो एक चैतन्य स्वरूप से उत्पन्न हुये शान्त रस को ही पीने का उद्यम करता हूँ , ग्रन्थ बनाने का अभिप्राय नहीं है / ग्रन्थ तो बडे-बडे पंडितों ने बहुत बनाये हैं, मेरी क्या बुद्धि है ? पुन: इस विषय में बुद्धि की मंदता से अर्थ विशेष भासित नहीं होता, अर्थ विशेष भासित हुये बिना चित्त एका ग्र नहीं होता और चित्त की एकाग्रता के बिना कषाय गलती (नष्ट होती) नहीं, कषाय गले बिना आत्मिक रस उत्पन्न नहीं होता। आत्मिक रस उत्पन्न हुये बिना निराकुल सुख का भोग कैसे हो ? अत: ग्रन्थ के माध्यम से चित्त एकाग्र करने का उद्यम किया है / यह (ग्रन्थ बनाने का) कार्य तो बडा है तथा मैं योग्य नहीं हूँ , ऐसा मैं भी जानता है / परन्तु “अर्थी दोष न पश्यति” अर्थात अर्थी पुरुष हैं वे शुभाशुभ कार्य का विचार नहीं करते, अपने हित को ही चाहते हैं। मैं भी निज स्वरूपानुभवन का अत्यन्त लोभी हूँ, अत: मुझे भी अन्य