Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ वंदनाधिकार इसप्रकार के अमृतमय वचनों से उस पुरुष को धैर्य देते हैं, जैसे गर्मी के समय में मुरझाई वनस्पति को मेघ पोषित करते हैं, उसीप्रकार पोषित करते हैं / महापुरुषों का तो यह स्वभाव ही है कि अगुण (दुष्टों) पर भी दया ही करते हैं तथा दुर्जन पुरुषों का यह स्वभाव ही है कि गुणी पर भी दुष्टता ही करें / ऐसे (ऊपर वर्णित गुणों वाले ) मुनिगण तारने में समर्थ क्यों न हों ? हों ही हों। मुनिराज की आहार क्रिया मुनिराज की आहार क्रिया में पांच प्रयोजन (अथवा विशेषतायें) होते हैं - __ गोचरी :- पहली तो गोचरी है / जैसे गाय को रंक या पुण्यवान कोई भी पुरुष घास आदि डाले तो उसे तो चरने (खाने मात्र) से ही प्रयोजन है, डालने वाले पुरुष से कोई प्रयोजन नहीं होता, उसीप्रकार मुनिराज को चाहे तो रंक (दरिद्र) पडगाह कर आहार दे अथवा राजा आदि पडगाह कर आहार दें, उन्हें तो आहार लेने मात्र से ही प्रयोजन है, (दाता) पुरुष रंक है या पुण्यवान है इससे उन्हें कोई प्रयोजन नहीं होता। __ भ्रामरी :- दूसरी (विशेषता) भ्रामरी है / जैसे भंवरा उडता हुआ फूल की गंध लेता है पर फूल को कोई हानी नहीं पहुंचाता, उसीप्रकार मुनिराज गृहस्थ से आहार लेते हैं, पर गृहस्थ को रंच मात्र भी खेद उत्पन्न नहीं होता। ___ दाहशमन :- तीसरी (विशेषता) दाहशमन है। जैसे आग लगी हो उसे जिस तिस (किसी भी) प्रकार बुझा देना होता है, उसीप्रकार मुनिराज को उदराग्नि (भूख) रूपी आग लगी हो, तो उसे जैसा तैसा (सरस - नीरस) आहार मिले उसी से उसे बुझा लेते हैं, अच्छे-बुरे स्वाद से प्रयोजन नहीं है। अक्षमृक्षण :- चौथी (विशेषता) अक्षमृक्षण कही जाती है / जैसे गाडी (धुरी में) चिकनाई बिना चलती नहीं है, उसीप्रकार मुनिराज यह