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बहुरत आदि सात निह्नवों के समान निह्नव कहलाता है। उपाध्यायप्रवर ने भी अनुयोग-व्यवस्थापन का कार्य प्रवचन- हितार्थ ही किया है, मिध्यात्वभावना से एवं मिथ्याभिनिवेश से नहीं किया है, अतः ये नित्य नहीं, अपितु जिनवाणी के उपकारक हैं।
'अनुयोग' शब्द के अन्य प्रयोग
'अनुयोग' शब्द का प्रयोग आगम में अनेक स्थानों पर भिन्न-भिन्न अभिप्राय से हुआ है।
(१) समवायांग एवं नन्दीसूत्र में दृष्टिवाद अंग के पाँच प्रकारों में अनुयोग' शब्द का प्रयोग हुआ है। दृष्टिवाद के पाँच प्रकार हैं(१) परिकर्म, (२) सूत्र, (३) पूर्वगत, (४) अनुयोग और (५) चूलिका इनमें से अनुयोग को दो प्रकार का निरूपित किया गया है(१) मूलप्रथमानुयोग और (२) गंडिकानुयोग । ये दोनों अनुयोग मात्र दृष्टिवाद के अंग हैं, अतः इनमें अन्य अंग, उपांग, छेद एवं मूलसूत्रों का समावेश नहीं होता। इनं दोनों अनुयोगों में मात्र दृष्टिवाद का विषय ही समाविष्ट होता है। मूलप्रथमानुयोग में अरिहंतों एवं सिद्धिपथ को प्राप्त हुए महापुरुषों का वर्णन सम्मिलित रहता है तथा गहिकानुयोग में कुलकरगडिका, तीर्थंकरगडिका, गणधरगडिका आदि का समावेश होता है। स्थूल रूप से विचार करें तो मूलप्रथमानुयोग एवं गंडिकानुयोग का समावेश धर्मकथानुयोग में किया जा सकता है।
(२) 'अनुयोग' शब्द का दूसरा प्रयोग 'अणुओगद्दारा' पद में हुआ है। नन्दीसूत्र एवं समवायांगसूत्र में विभिन्न आगमों का परिचय देते हुए याचना, प्रतिपत्ति बेड़, श्लोक, नियुक्ति, संग्रहणी आदि के साथ अनुयोगद्वारों का भी उल्लेख किया गया है। प्रायः संख्यात अनुयोगद्वारों का उल्लेख रहता है। अनुयोगद्वारसूत्र में भी श्रुतज्ञान के उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की प्रवृत्ति का निर्देश है। अनुयोग का अर्थ 'सूत्र के साथ का योजन' है। सूत्र की वाचना के पश्चात् इस अनुयोग की प्रवृत्ति होती है। अनुयोगद्वारसूत्र तो पूर्णरूपेण अनुयोग की विधि का निदर्शन है। अनुयोगद्वारसूत्र में आवश्यकसूत्र के प्रथम सामायिक अध्ययन के चार अनुयोगद्वार इस प्रकार कहे गए हैं - (१) उपक्रम, (२) निक्षेप, (३) अनुगम और (४) नय।' नाम, क्षेत्र आदि के आधार पर शब्द का कथन उपक्रम है। उसका फिर नाम, स्थापना आदि में अर्थ खोजना निक्षेप है। अनुकूल अर्थ का कथन अनुगम है तथा अभीष्ट अभिप्राय को पकड़ना नय का कार्य है। इस प्रकार 'अनुयोग' की पूर्णता उपक्रम आदि के द्वारा सम्पन्न होती है।
(३) आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनिर्युक्ति में अनुयोग का सात प्रकार का निक्षेप बतलाया है, यथा - (१) नामानुयोग, (२) स्थापनानुयोग, (३) द्रव्यानुयोग, (४) क्षेत्रानुयोग, (५) कालानुयोग, (६) वचनानुयोग और (७) भावानुयोग । २ जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य में इन सबकी व्याख्या की है । ३ संक्षेप में कहा जाय तो इन्द्र आदि के साथ 'इन्द्र' आदि नामों का योग या सम्बन्ध नामानुयोग है। काष्ठादि में आचार्य आदि की स्थापना का अनुयोजन या व्याख्यान स्थापनानुयोग है। द्रव्य का, द्रव्य में अथवा द्रव्य से जो पर्यायादि का योग है वह द्रव्यानुयोग है। द्रव्यानुयोग व्याख्यानस्वरूप भी होता है। अनुरूप या अनुकूल योग अर्थात् सम्बन्ध को इस दृष्टि से अनुयोग कहा गया है। इसी प्रकार क्षेत्र, काल, वचन एवं भाव में भी अनुयोग घटित होते हैं। जिस प्रकार अनुयोग का सप्तविध निक्षेप कहा गया है उसी प्रकार अननुयोग का भी सात प्रकार का निक्षेप है, यथा - ( १ ) नामाननुयोग, (२) स्थापनाननुयोग, (३) द्रव्याननुयोग, (४) क्षेत्राननुयोग, (५) कालाननुयोग, (६) चचनाननुयोग और (७) भावाननुयोग ।
'अनुयोग' के विभिन्न अर्थ
अनुयोग का प्रायः व्याख्या अर्थ गया है। ये सभी शब्द अनुयोग के कहा है
प्रसिद्ध है। भद्रबाहु की नियुक्ति में अनुयोग को नियोग, भाषा, विभाषा एवं वार्तिक का एकार्थक कहा व्याख्या अर्थ को ही स्पष्ट करते हैं। जिनभद्रगणि ने 'अनुयोग' के विभिन्न अर्थों का प्रणयन करते हुए
"अणुओयणमनु ओगो सुयस्स नियएण जमभिधेएणं । बावारो या जोगो जो अणुरुवोऽणुकूलो वा ॥ अहवा जमत्थओ थोव- पच्छभावेहिं सुयमणुं तस्स । अभिधेये वावारो जोगो तेणं व संबंधो ॥५
उपर्युक्त दो गाथाओं में अनुयोग के जो अर्थ गुम्फित हैं, उन्हें क्रमशः इस प्रकार रखा जा सकता है
(१) सूत्र का अपने अभिधेय अर्थ के साथ अनुयोजन या सम्बन्धन अनुयोग है।
(२) योग का एक अर्थ व्यापार है। इसलिए अनुकूल या अनुरूप योग अर्थात् सूत्र का अपने अभिधेय अर्थ में व्यापार अनुयोग है। यथा 'घट' शब्द से 'घट' अर्थ का कथन अनुयोग है।
9. तत्थ पढमज्झयणं सामाइयं । तस्स णं इमे चत्तारि अणुओगद्दारा भवंति । तँ जहा - (१) उवक्कमे, (२) णिक्खेवे, (३) अणुगमे, (४) गए।
२. नाम ठवणा दविए खेत्ते काले वयणभावे य। एसो अणुओगस्स उ निक्खेवो होइ सत्तविहो ।।
३. द्रष्टव्य विशेषावश्यकभाष्य, भाग १, गाथा १३८९-१४०९
४. अणुओगो य निओगो भास - विभासा य वत्तियं चेव । एए अणुओगस्स उ नामा एगट्ठिया पंच ॥ ५. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १३८६ १३८७
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- अनुयोगद्वारसूत्र ७५ (ब्यावर प्रकाशन)
- आवश्यकनियुक्ति १३२
- आवश्यकनियुक्ति १३१