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प्रस्तावना
चार अनुयोग
उपाध्यायप्रवर पं. रत्न मुनि श्री कन्हैयालाल जी महाराज 'कमल' ने ईसवीय बीसवीं शती के अन्तिम चरण में आगम अनुयोग के सम्पादन एवं प्रकाशन की दिशा में स्थायी महत्त्व का ऐतिहासिक कार्य किया है। उनका यह कार्य अनुयोग - विभाजन के प्रथम प्रवर्तक आचार्य आर्यरक्षित की भी स्मृति दिलाता है।
आर्यरक्षित के पूर्ववर्ती आचार्य आर्ययज्ञ के समय तक अनुयोगों का पृथक्करण नहीं हुआ था। उस समय एक सूत्र की व्याख्या रूप एक अनुयोग प्रयुक्त किए जाने पर भी प्रत्येक सूत्र में चरणानुयोग आदि चारों अनुयोगों का अर्थ कहा जाता था। यह तथ्य स्वयं भद्रबाहु ने आवश्यक सूत्र की नियुक्ति में स्पष्ट किया है। जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य में तथा मलधारी हेमचन्द्र ने उसकी वृत्ति में इस तथ्य को पुष्ट किया है। आर्यरक्षित ने आचार्य आर्ययज से ही सूत्र के अर्थ का अध्ययन करके अनुयोगों का पृथकरण किया था। आर्यरक्षित के शिष्य थे-दुर्बलिकापुष्यमित्र। आर्यरक्षित ने जब दुर्बलिकापुष्यमित्र को श्रुत एवं अर्थ का ज्ञान कराते समय कठिनाई का अनुभव किया था भावी पुरुषों को मति मेधा एवं धारणा की दृष्टि से हीन समझा तो उन्होंने अनुयोगों एवं नयों का पृथक्करण कर दिया।
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आचार्य आर्यरक्षित ने जिन चार अनुयोगों में श्रुत का विभाजन किया उन चार अनुयोगों का कथन आचार्य भद्रबाहु ने इस प्रकार किया है
"कालियसुयं च इसिमासिचाई तहओ व सूरपाती। सव्वो य दिट्टिवाओ चउत्थओ होइ अणुओ ॥ " ३
- डॉ. धर्मचन्द जैन
अर्थात् अनुयोग चार प्रकार का है - ( १ ) कालिकश्रुत, (२) ऋषिभाषित, (३) सूर्यप्रज्ञप्ति और (४) समस्त दृष्टिवाद। आचारांग आदि ग्यारह अंगसूत्रों का अध्ययन काल-ग्रहण आदि विधि से किया जाता है इसलिए इन्हें कालिक कहा जाता है। कालिकसूत्रों को चरणकरणानुयोग भी कहा गया, क्योंकि इनमें धर्मकथा आदि अन्य अनुयोगों के होते हुए भी प्राधान्य चरणकरणानुयोग का है। ऋषिभाषित एवं उत्तराध्ययनसूत्र में नमि-कपिल आदि महर्षियों के धर्माख्यानकों का कथन होने से ये धर्मकथानुयोग कहे गए। सूर्यप्रज्ञप्ति में चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि की विचरण - गति का प्रतिपादन मुख्य है इसलिए यह गणितानुयोग है। दृष्टिवाद नामक बारहवें अंगसूत्र में चालना प्रत्यवस्थान आदि के द्वारा जीव आदि द्रव्यों का ही प्रतिपादन किया जाता है, इसलिए वह द्रव्यानुयोग है। आचार्य भद्रबाहु ने महाकल्पसूत्र एवं शेष छेदसूत्रों का समावेश चरणकरणानुयोग में किया है, क्योंकि ये भी कालिकसूत्र हैं। इस प्रकार भद्रबाहु ने आर्यरक्षित के अनुसार चार अनुयोगों का निम्नांकित विभाजन प्रस्तुत किया है
(१) चरणकरणानुयोग कालिकत (ग्यारह अंगसूत्र, महाकल्पसूत्र एवं शेष छेदसूत्र)
(२) धर्मकथानुयोग' ऋषिभाषित (उत्तराध्ययनसूत्र भी )
(३) गणितानुयोग - सूर्यप्रज्ञप्ति
(४) द्रव्यानुयोग - दृष्टिवाद
चार अनुयोगों के इन नामों का विशेषावश्यकभाष्य के रचयिता जिनभद्रमणि ने स्पष्ट रूप से निम्नांकित गाया में उल्लेख किया है
"भण्णंतऽणुओगा चरण-धम्म-संखाण- दव्वाणं । ६
अर्थात् चरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, संख्यानानुयोग (गणितानुयोग ) और द्रव्यानुयोग ये चार अनुयोग कहे गए हैं। श्वेताम्बर जैन परम्परा जाति अब अरुतं कालियाणुओगस्स तेणारेण पुहुतं कालियव दिडियाए । अपहत्तेऽणुओगो चत्तारि दुबारभाई एगो ताओगकरणे ते अन्य तओ उ बुडित्रा ।।
- आवश्यकनियुक्ति ७६३ एवं ७७३ वर्षात ग्रन्थमाला)
२. द्रष्टव्य, विशेषावश्यकभाष्य, भाग २, दिव्यदर्शन ट्रस्ट, बम्बई, गाथा २२८५ एवं २२८७ एवं इनकी वृत्ति ३. विशेषावश्यकभाष्य, भाग २ में गाथा २२९४ के रूप में प्राप्त
४. जं च महाकप्प सुयं जाणि अ सेसाणि छेअसुत्ताणि । चरणकरणाणुओगो त्ति कालियत्थे उवगयाणि ॥
(२५)
-विशेषावश्यकभाष्य, भाग २ में गाथा २२९५ के रूप में प्राप्त
५. धर्मकथानुयोग आदि नामों का उल्लेख मलधारी हेमचन्द्र ने विशेषावश्यकभाष्य पर अपनी वृत्ति में किया है। द्रष्टव्य, विशेषावश्यकभाष्य, भाग २, गाथा २२९४ २२९५ की वृत्ति
६. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा २२८१