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में अनुयोगों का यही क्रम मान्य है। दिगम्बर परम्परा में अनुयोगों के नाम भिन्न हैं तथा उनके नाम द्रव्यसंग्रह टीका एवं पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति के अनुसार इस प्रकार हैं-(१) प्रथमानुयोग, (२) चरणानुयोग, (३) करणानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग। प्रथमानुयोग में तिरेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र का वर्णन होता है। अर्थात् यह एक प्रकार से श्वेताम्बर परम्परा में मान्य धर्मकथानुयोग की श्रेणी में आता है। चरणानुयोग में उपासकाध्ययन आदि के श्रावकधर्म, तथा आचाराराधन आदि के यतिधर्म को मुख्य रूप से सम्मिलित किया गया है। करणानुयोग में त्रिलोकसार आदि के गणितीय विषय का समावेश होता है। श्वेताम्बर परम्परा में इसे गणितानुयोग कहा गया है। द्रव्यानुयोग में जीवादि षड्द्रव्यों के वर्णन की प्रधानता होती है तथा जीवादि के शुद्धाशुद्ध रूप का विचार किया जाता है। इस प्रकार विषय-वस्तु एवं नामों की दृष्टि से दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में कोई विशेष अन्तर नहीं है। क्रम में अन्तर अवश्य है। दिगम्बर परम्परा में प्रथमानुयोग किंवा धर्मकथानुयोग को चरणानुयोग के पूर्व रखा गया है तथा श्वेताम्बर परम्परा में धर्मकथानुयोग के पूर्व चरणकरणानुयोग को स्थान दिया गया है।
अनुयोगों के उपर्युक्त विभाजन में एक विशेष उल्लेखनीय तथ्य यह है कि भद्रबाहु (चौथी शती ई. पू.) ने जहाँ अंगसूत्रादि आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त करने का निर्देश किया है वहाँ बृहद्रव्यसंग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेव (१६वीं शती) ने सूत्रों की विषय-वस्तु को अनुयोग-विभाजन में अलग से भी महत्त्व दिया है। जैसे श्रावकधर्म एवं यतिधर्म का वर्णन करने वाले सूत्रों को उन्होंने चरणानुयोग में सम्मिलित किया है, वैसे ही भद्रबाहु ने कालिकसूत्रों को चरणकरणानुयोग में रखा है। प्रथमानुयोग अथवा धर्मकथानुयोग में दिगम्बर परम्परा में तिरेसठ शलाका पुरुषों का वर्णन करने वाले पुराणों को स्थान दिया गया है वहाँ श्वेताम्बर परम्परा में ऋषिभाषित, उत्तराध्ययनसूत्र जैसे आगमों को धर्मकथानुयोग कहा है। श्वेताम्बर परम्परा में चरणानुयोग को चरणकरणानुयोग कहा है एवं गणितानुयोग की अलग से गणना की गयी है, जबकि दिगम्बर परम्परा में करणानुयोग के अन्तर्गत गणितानुयोग का समावेश होता है।
उपाध्यायप्रवर श्री कन्हैयालाल जी महाराज 'कमल' ने युग की माँग को ध्यान में रखते हुए लगभग ५० वर्षों के अथक परिश्रम से श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा को मान्य ३२ आगमों के आधार पर चार अनुयोगों को प्रस्तुत किया है। चार अनुयोगों में से चरणानुयोग, धर्मकथानुयोग एवं गणितानुयोग का प्रकाशन पहले ही हो चुका है। द्रव्यानुयोग का प्रकाशन इस तृतीय भाग के साथ पूर्णता को प्राप्त हो रहा है। __आचार्य आर्यरक्षित के द्वारा किए गए अनुयोग-विभाजन के कार्य को उपाध्याय श्री कन्हैयालाल जी महाराज ने आगे बढ़ाया है। आर्यरक्षित ने जहाँ अनुयोगों का स्थूल विभाजन करके विभिन्न आगमों को विषय-वस्तु के प्राधान्य से अलग-अलग अनुयोगों में वर्गीकृत किया था वहाँ उपाध्याय श्री कन्हैयालाल जी महाराज ने आगमों की आन्तरिक विषय-वस्तु को विभिन्न अनुयोगों में वर्गीकृत कर तत्सम्बद्ध अनुयोगों में व्यवस्थित कर दिया है। इस कार्य में उपाध्यायप्रवर को कठोर श्रम करना पड़ा है। कौन-सी विषय-वस्तु किस अनुयोग में जाएगी, यह निर्धारित करना भी कोई सरल कार्य नहीं है। धर्मकथानुयोग की विषय-वस्तु चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग से भी सम्बद्ध हो सकती है। फिर भी स्वविवेक के आधार पर उपाध्यायप्रवर ने आगमों की आन्तरिक विषय-वस्तु का जो चार अनुयोगों में विभाजन किया है वह जिज्ञासु पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। अनेक शोधार्थियों को इससे महती सुविधा का अनुभव होगा। इस विभाजन से पाठकों को एक तत्त्व या विषय पर सम्पूर्ण आगम में वर्णित तथ्यों को जानने में सुविधा होगी।
आर्यरक्षित एवं उपाध्यायप्रवर के अनुयोग-विभाजन में एक स्थूल भेद यह है कि आर्यरक्षित ने जहाँ श्वेताम्बरों को मान्य समस्त आगमों (विशेषतः अंगसूत्र, उपांगसूत्र, छेदसूत्र एवं मूलसूत्र) का चार अनुयोगों में विभाजन किया है वहाँ उपाध्याय श्री कन्हैयालाल जी महाराज ने श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन परम्परा को मान्य ३२ आगमों की विषय-वस्तु का ही चार अनुयोगों में विभाजन एवं व्यवस्थापन किया है। जिन ३२ आगमों को उपाध्यायश्री ने आधार बनाया है, वे इस प्रकार हैं
ग्यारह अंग आगम-(१) आचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) स्थानांग, (४) समवायांग, (५) भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति), (६) ज्ञाताधर्मकथा, (७) उपासकदशा, (८) अंतकृद्दशा, (९) अनुत्तरोपपातिक, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) विपाकसूत्र।
बारह उपांग आगम-(१) औपपातिक, (२) राजप्रश्नीय, (३) जीवाजीवाभिगम, (४) प्रज्ञापना, (५) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, (६) चन्द्रप्रज्ञप्ति, (७) सूर्यप्रज्ञप्ति, (८) निरयावलिया, (९) कल्पावतंसिका, (१०) पुष्पिका, (११) पुष्पचूलिका, (१२) वृष्णिदशा।
चार मूलसूत्र-(१) उत्तराध्ययन, (२) दशवैकालिक, (३) नन्दीसूत्र, (४) अनुयोगद्वारसूत्र। चार छेदसूत्र-(१) दशाश्रुतस्कन्ध, (२) बृहत्कल्पसूत्र, (३) व्यवहारसूत्र, (४) निशीथसूत्र। बत्तीसवाँ-आवश्यकसूत्र। (११ + १२ + ४ + ४ + १ = ३२)
बत्तीस आगमों के आधार पर किए गए इस अनुयोग-व्यवस्थापन की एक विशेषता यह है कि इसके अन्तर्गत प्रत्येक अनुयोग में विभिन्न अध्ययन बनाए गए हैं एवं फिर उन अध्ययनों के अन्तर्गत सम्बद्ध सामग्री को योजित किया गया है। अध्ययनों के अन्दर भी अनेक उपशीर्षक हैं जिनका प्राकृत एवं हिन्दी दोनों भाषाओं में नामकरण किया गया है। उपाध्यायप्रवर ने हिन्दी पाठकों के लिए अनुयोगों के मूल पाठ के समक्ष ही उसका हिन्दी अर्थ दिया है, जो अत्यन्त सुविधाजनक है।
विशेषावश्यकभाष्य में एक प्रश्न उठाया गया कि आर्यरक्षितसूरि की परम्परा में गोष्ठामाहिल को वादविजयी होने पर हुए मिथ्यात्व के उदय के कारण सातवाँ निह्नव माना गया, तो अनुयोग एवं नय का निरूपण करने वाले आर्यरक्षित को निह्नव क्यों नहीं कहा गया? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए जिनभद्रगणि ने कहा कि आर्यरक्षित ने नय एवं अनुयोगों का निरूपण प्रवचन के हितार्थ ही किया था, उन्होंने यह कार्य मिथ्यात्वभावना से एवं मिथ्याभिनिवेश से नहीं किया था। यदि मिथ्याभिनिवेश से जिनोक्त पद की कोई अवहेलना करता है तो वह
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