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(४)
भूमिका |
चरक भगवान्को शेष भगवान्का अवतार कहाजाता है इन्होंने आत्मिक मल दूर करने के लिये " योगदर्शन", वाणीका मल दूर करनेके लिये व्याकरण "अष्टा व्यायी" पर "महाभाष्य" और शारीरिक मलको दूर करनेके लिये यह "चरफसंहिता" बनाई |
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अग्निवेशकृत संहिताको ही महापं चरकजीने विधिवत् संस्कारकर जो विषय अत्यंत बढे हुए थे उनको संक्षिप्त और जो अत्यंत सूक्ष्म थे उनको किंचित् बढाकर और विना कथन किये विषय को सम्मेलित कर यह अद्वितीय, अनुपम " चरक संहिता "येय बनाया। चिकित्सा में इसके समान अन्य कोई ग्रंथ आयुर्वेद के ज्ञाता - योकी दृष्टिमें माननीय ने हुआ । इस ग्रंथ में १७ अध्याय चिकित्सास्थानके, कल्प और सिद्धिस्थान महात्मा दृढवलेने व्यग्निवेश आदि संहिताओंमेंसे संग्रहकर मिलायें हैं इसलिये कोई ऐसी शंका भी करते हैं कि, यह संपूर्ण संहिता महर्षि चरक. प्रणीत नहीं है । परन्तु कुछ भी हो यह चरकसंहिता चिकित्सा शास्त्रमें अद्वितीय है इसीलिये कहा है कि "यदिहास्ति तदेवास्ति यन्नेहास्तिन तत्कचित्" । अर्थात् जो विषय इस संहितामें लिखा है वही और तंत्रोंमें भी मिलता है परन्तु जो इसमें नहीं है वह कहीं भी नहीं । यद्यपि भावमिश्र आदिकोंने फिरंग आदि एक आध विषयको विशेषरूपसे लिखकर यह माना है कि, यह नवीन रोग हमने ही अपने ग्रन्यमें लिखाई और फिरंगियों के संसर्ग से यह फिरंगरोग उत्पन्न हुआ परन्तु चरकसंहिता ऐसे अनेक विषय सूक्ष्मरूपसे कहे गये हैं जिनको देश व फालके भेदसें विभक्तकर स्थूलरूप से यदि लिखाजाय तो "भावप्रकाश" जैसे पचासों ग्रन्य तैयार करनेपर भी संपूर्ण विषय नहीं लिखे जा सकते । इसलिये कहा है कि "एकस्मि: नपि यस्येह शास्त्रे लब्यास्पदा मतिः। स शास्त्रमन्यदप्पाशुयुक्ति ज्ञात्वा मनुध्यते " ॥ अर्थात् जिसकी मति इस एकही शाखको यथोचित रविसे जान गई है वह इस तंत्र की युक्तियों की जान लेनेसे अन्य शास्त्रोकोभी शीघ्र जानसकताहै, तात्पर्य यह कि. जिसको यह चरकसंहिता यथोचित रीतिसे याती है वह अन्य शास्त्रोंको इस चरककी युक्तियों द्वारा शीघ्र जानलेता है । "इदमखिलमधीत्य सम्यगर्थान्विमृशति यो विमलः प्रयोगनित्यः । स मनुजसुखजोवितमदानाद्भवति धृति-स्मृति वृद्धि धर्मवृद्धः॥" अर्थात् जो मनुष्य इस संपूर्ण संहिताको ययोचित पढकर इसके विषयफों भले प्रकार समझ चिकित्साका प्रयोग करताहे वह मनुष्योंको सुख और जीवन कों देनेवाला होनेसे धृति, स्मृति, बुद्धि और धर्ममें सबसे बडा माना जाता है ।
"यस्य हावालाही हाई तिष्ठति संहिता |