Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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प्रस्तावना
उत्पात, नक्षत्र, उल्का, निर्घात, पवन, विद्युत्पात, इन्द्रधनुष आदि के द्वारा जो उत्पात दिखलाई पड़ते हैं, वे अन्तरिक्षः पार्थिव विकारों द्वारा जो विशेषताएँ दिखलाई पड़ती हैं, वे भौमोत्पात कहलाते हैं। तीर्थकर प्रतिमा से पसीना निकलना, प्रतिमा का हँसना, रोना, अपने स्थान से हटकर दूसरी जगह पहुँच जाना, छत्रभंग होने, छत्र का स्वयमेव हिलना, चलना, काँपना आदि उत्पातों को अत्यधिक अशुभ समझना चाहिए। ये उत्पात, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र इन तीनों के लिए अशुभ है। इन उत्पातों से राष्ट्र में अनेक प्रकार के उपद्रव होते हैं। घरेलू संघर्ष भी इन उत्पातों के कारण होते हैं। इस अध्याय में दिव्य, अन्तरिक्ष और भीम तीनों प्रकार के उत्पातों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
पन्द्रहवें अध्याय में शुक्राचार्य--का वर्णन है। इसमें 230 श्लोक हैं। इसमें शुक्र के गमन, उदय, अस्त, वक्री, मार्गी आदि के द्वारा भूत-भविष्यत् का फल, वृष्टि, अवृष्टि, भय, अप्रिकोप, जय पराजय, रोग, धन, सम्पत्ति आदि फलों का विवेचन किया गया है। शुक्र के हो मण्डलों में भ्रमण करने के फल का कथन किया है। शुक्र का नागवीथि; गजवीथि, ऐरावतवीधि, वृषवधि, गोबीथि, जरद्गववीथि, अजवीधि, मृगवीथि और वैश्वानरवीथि में भ्रमण करने का फलादेश बताया गया है। दक्षिण, उत्तर, पश्चिम और पूर्व दिशा की ओर से शुक्र के उदय होने का फलादेश कहा गया है। अश्विनी, भरणी आदि नक्षत्रों में शुक्र के अस्तोदय का फल भी विस्तार पूर्वक बताया गया है। शुक्र की आरूद, दीप्त, अस्तंगत आदि अवस्थाओं का विवेचन भी किया गया है। शुक्र के प्रतिलोम, अनुलोम, उदयास्त, प्रवास आदि का प्रतिपादन भी किया गया है। इस अध्याय में गणित क्रिया के बिना केवल शुक्र के उदयास्त को देखने से ही राष्ट्र का शुभाशुभ ज्ञान किया जा सकता है।
सोलहवें अध्याय में शनिचार का कथन है। इसमें 32 श्लोक हैं। शनि के उदय, अस्त, आरूढ़, छत्र, दीप्त आदि अवस्थाओं का कथन किया गया है। कहा गया है कि श्रवण, स्थाति, हस्त, आर्द्रा, भरणी और पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में शनि स्थित हो, तो पृथ्वी पर जल की वर्षा होती है, सुभिक्ष, समर्पता वस्तुओं के भावों में समता और प्रजा का विकास होता है। अश्विनी नक्षत्र में शनि के विचरण करने से अश्व, अश्वारोही, कवि, वैद्य और मन्त्रियों को हानि उठानी पड़ती है। शनि और चन्द्रमा के परस्पर वेध, परिवेष आदि का वर्णन भी इस अध्याय में है। शनि के वक्री और मार्गी होने का फलादेश भी इस अध्याय