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आराधनासमुच्चयम् २८
इस सम्यग्दर्शन के प्रारंभक कर्मभूमिया मनुष्य ही होते हैं, निष्ठापना चारों गतियों में हो सकती है अर्थात् जिस कर्मभूमिया मनुष्य ने मिथ्यात्व अवस्था में नरक, शिर्यच और मनुष्य आयु का बन्ध कर लिया हो और मरण के अन्तर्मुहर्त पूर्व क्षायिक सम्यग्दर्शन करना प्रारंभ किया, अनन्तानुबंधी चतुष्क, मिथ्यात्व, सम्यक्-मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों की सत्ता-व्युच्छित्ति करके कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि होकर मरा तथा प्रथम नरक, भोगभूमिया तिर्यंच, मनुष्य वा कल्पवासी देवों में उत्पन्न हुआ, वह निवृत्त्यपर्याप्त अवस्था में सम्यक्त्व प्रकृति का नाश कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है। उक्तं च
तत्सरागं विरागं च द्विधोपशमिकं तथा।
क्षायिकं वेदकं प्रेधा, दशधाज्ञादिभेदतः ॥इति ॥ अन्वयार्थ - तत् - वह सम्यग्दर्शन । सरागं - सराग । च - और। विराग - विराग के भेद से। द्विधा - दो प्रकार का है। तथा - और । औपशमिकं - औपशमिक। क्षायिकं - क्षायिक । वेदकं - वेदक के भेद से। त्रेधा - तीन प्रकार का है। आज्ञादिभेदत - आज्ञादिक भेद से। दशधा - दश प्रकार का है।
भावार्थ - इस श्लोक में सम्यग्दर्शन के भेद - प्रभेदों का कथन किया है। सामान्यत: तत्त्वश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन एक प्रकार का है। सम्यग्दर्शन सराग और वीतराग के भेद से दो प्रकार का है।
___ "प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्यादिलक्षणं सरागसम्यक्त्वं" प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भाव से प्रगट होने वाला सराग सम्यग्दर्शन है। . आत्मविशुद्धि मात्र वीतराग सम्यक्त्व है।
राजवार्तिक में प्रशम आदि भावों से प्रगट होने वाले सम्यग्दर्शन को सराग सम्यग्दर्शन कहा है तथा अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन सात प्रकृतियों के अत्यन्त क्षय होने से जो आत्मविशुद्धि होती है वा श्रद्धान होता है उसे वीतराग सम्यादर्शन कहा
अमितगति श्रावकाचार में लिखा है कि - “सराग, वीतराग के भेद से सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। औपशमिक एवं क्षायोपशमिक सराग सम्यग्दर्शन है और क्षायिक वीतराग सम्यादर्शन है। वा प्रशमादि भावों से प्रगट होने वाला सराग और उपेक्षा संयम के साथ होने वाला वीतराग सम्यग्दर्शन है।
भगवती आराधना में लिखा है कि प्रशस्त राग वाले प्राणियों के सराग सम्यग्दर्शन और प्रशस्त एवं अप्रशस्त दोनों राग से रहित क्षीणमोही वीतरागियों के वीतराग सम्यग्दर्शन होता है।