________________
आराधनासमुच्चयम् १८०
प्रत्यक्ष वाचनिक विनय - गुरु के समीप आदरपूर्वक हित मित प्रिय वचन बोलना, कर्कश अप्रिय और गुरु के प्रतिकूल वचन न लोनमा ! स्तन में भी गुरुजी निन्दः, अन्ना, निरस्कारकारी वचन नहीं बोलना प्रत्यक्ष वाचनिक विनय है।
प्रत्यक्ष मानसिक विनय - पापासव के कारणभूत परिणामों को हृदय में प्रवेश नहीं होने देना, गुरु की निंदा वा तिरस्कार के भाव मन में नहीं होने देना, गुरु के वचन सुनकर क्रोध नहीं करना, अपने हृदय को गुरुओं के गुणों में अनुरक्त रखना प्रत्यक्ष मानसिक विनय है।
देव शास्त्र गुरु का तथा यथायोग्य सहधर्मी का सत्कार करना भी उपचार विनय में गर्भित हो जाता है तथा अकृत्रिम एवं कृत्रिम जिनबिम्ब, जिनमन्दिर की पूजा-स्तुति आदि सर्व उपचार विनय के भेद हैं। इस प्रकार पाँच प्रकार के विनय से युक्त होना विनय नामक अंतरंग तप हैं।
विनय गुण से आत्मशुद्धि, कर्ममल का नाश, वैमनस्य का अभाव, गुरुओं का अनुग्रह, सरलता, मृदुता आदि अनेक गुणों की प्राप्ति होती है।
वैयावृत्ति नामक तप का लक्षण और उसके भेदों का कथन व्यापदि यत् क्रियते तत् वैयावृत्यं स्वशक्तिसारण।
ह्याचार्यादिसमाश्रयवशतो दशधा विकल्प्यं तत् ॥११३॥
अन्वयार्थ - यत् - जो । स्वशक्तिसारेण - स्वकीय शक्ति के अनुसार | व्यापदि - आपत्ति का निराकरण । क्रियते - किया जाता है। तत् - वह। वैयावृत्त्यं - वैयावृत्ति है। तत् - वह वैयावृत्ति। हि - निश्चय से। आचार्यादि समाश्रयवशत: - आचार्यादि के आश्रय के वश से। दशधा - दस प्रकार के। विकल्प्यं - विकल्प वाली है।
अर्थ - गुणी पुरुषों के दुःख में आ पड़ने पर स्वशक्ति अनुसार निर्दोष विधि से उनका दुःख दूर करना, पाँव दबाना, अपने हाथ से खंकार, नाक आदि का भीतरी मल साफ करना, उनके अनुकूल वातावरण रखना, प्रासुक औषधि, आहारपान, आश्रय, चौकी, तख्ता, सांथरा आदि धर्मोपकरणों से प्रतिकार करना तथा सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र से च्युत होते हुए साधुओं को पुनः सम्यग्दर्शन-चारित्र में दृढ़ करना वैयावृत्ति कहलाती है। अर्थात् रोगादि से व्याकुल साधु के विषय में उनकी आपत्ति आदि दूर करने के लिए ख्याति, लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा की भावना के बिना जो कुछ किया जाता है, वह वैयावृत्ति कहलाती है।
आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ ये दश वैयावृत्ति करने के योग्य होते हैं। इसलिए पात्र की अपेक्षा वैयावृत्ति के १० भेद कहे हैं।
ज्ञानाचार, तपाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार और वीर्याचार रूप पाँच प्रकार के आचार का जो स्वयं पालन करते हैं और अन्य शिष्यों से पालन कराते हैं तथा पंचाचार का उपदेश देते हैं, वे आचार्य कहलाते