Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 344
________________ आराधनासमुच्चयम् * ३३५ इन प्रमादों के वशीभूत हुए प्राणी चारित्र की आराधना नहीं कर सकते। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर के सौन्दर्य का अभिमान करना मद है। शल्य (काँटे) के समान निरंतर चुभती रहती है, आत्मपरिणामों को स्थिर नहीं रहने देती, उसे शल्य कहते हैं। भाव शल्य और द्रव्य शल्य के भेद से शल्य दो प्रकार की होती हैं। द्रव्यशल्य सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। मिथ्यादर्शन शल्य, माया शल्य और निदान शल्य के भेद से भाव शल्य तीन प्रकार की होती है। मिथ्यादर्शन, माया और निदान शल्य जिस कर्म के उदय से उत्पन्न होती हैं, वे मिथ्यादर्शन आदि कर्मप्रकृति द्रव्यशल्य हैं। जिस कर्म के उदय से अश्रद्धान रूप मिथ्यादर्शन, मायाचार और आगामी भोगों की इच्छा उत्पन्न होती है, उसको भाव शल्य कहते हैं। अथवा सम्यग्दर्शन शल्य, सम्यग्ज्ञान शल्य और सम्यक्चारित्र शल्य के भेद से भावशल्य तीन प्रकार भी है। तत्त्वों में शंका करना, सांसारिक भोगों की वाञ्छा करना आदि सम्यग्दर्शन के घातक परिणाम सम्यग्दर्शन शल्य हैं। अकाल में शास्त्र पढ़ना, अक्षर-अर्थ शुद्ध नहीं पढ़ना, आदि सम्यग्ज्ञान शल्य हैं। व्रत, समिति, गुप्ति आदि में अनादर करना, उनमें अतिचार लगाना सम्यक् चारित्र शल्य है। माया, मिथ्यात्व और निदान की अपेक्षा के भेद से शल्य तीन प्रकार की है। बाह्य में काय और वचन की प्रवृत्ति भिन्न होती है और आंतरिक मानसिक प्रवृत्ति भिन्न होती है अथवा हृदय में लोहे की कांड के समान निरंतर चुभती रहती है, उसे मायाशल्य कहते हैं। ___ आत्मा का स्वरूप परमात्मा के समान नित्य, निरंजन, निर्दोष है, उसको भूल कर पर-पदार्थों में __ रुचि की जाती है तथा आत्मस्वरूप में संशय रहता है, उसको मिथ्याशल्य कहते हैं। देखे हुए, सुने हुए और अनुभूत भोगों में निरंतर चित्त का लीन रहना, आगामी भव में होने वाले भोगों की अभिलाषाओं का चित्त से नहीं निकलना निदान नामक शल्य है। पंचेन्द्रिय के विषयों और मन पर विजय प्राप्त नहीं करना, छह काय के जीवों की विराधना करना असंयम है, अव्रत है। घमण्ड वा अभिमान करना गारव है। गारव तीन प्रकार का है: शब्द गारव, ऋद्धि गारव और सात गारव। शब्द-उच्चारण का घमण्ड करना शब्द गारव है। शिष्य, पुस्तक, कमण्डलु, पिच्छी या पट्ट आदि के द्वारा अपने को महान् मानना ऋद्धि गारव है।

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