Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 357
________________ आराधनासमुच्चयम् -३४८ और मनःपर्ययज्ञान की प्राप्ति। क्योंकि अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान श्रुत की आराधना से ही उत्पन होते हैं। श्रुत का अभ्यास अंतरंग तप है और तप से कर्मों की निर्जरा होती है तथा कर्मों की निर्जरा से अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान की प्राप्ति होती है। केवलज्ञान की प्राप्ति भी श्रुतज्ञान की आराधना से होती है। क्योंकि शुक्ल ध्यान ११ अंग और १४ पूर्व के पाठी को ही होता है। अथवा श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मस्वरूप को जानकर निर्विकल्प समाधि में लीन हो स्वकीय शुद्धात्मा का अनुभव करते हैं, वे शुक्ल ध्यान के द्वारा चार घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। जो इन्द्रियों की सहायता के बिना क्रम रहित तीन लोक में स्थित सारे पदार्थों को एक समय में ही जान लेते हैं, ऐसे सारे पदार्थों को एक साथ जानने वाले केवलज्ञान की उत्पत्ति वा प्राप्ति ज्ञान-आराधना का मुख्य फल है। यद्यपि इस ग्रन्थ में ज्ञान आराधना के कथन में चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल ये चार दर्शन और आठ ज्ञान तथा नयों का कथन या भेद कहे गये हैं, परन्तु वास्तव में श्रुतज्ञान की आराधना ही ज्ञान आराधना है। ज्ञान की आराधना में श्रुतज्ञान का ही विशेष कथन है तथा अक्षर शुद्ध पढ़ना, अर्थ शुद्ध पढ़ना आदि श्रुतज्ञान के ही आठ अंग हैं। विशेष रूप से पूजा, आराधना, भक्ति श्रुतज्ञान की ही की जाती है। क्योंकि अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान श्रुतज्ञान की आराधना के फल अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान के बिना केवलज्ञान हो सकता है, परन्तु श्रुतज्ञान के बिना केवलज्ञान नहीं हो सकता। अत: ज्ञानाराधना का अमुख्य (गौण) फल है अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान की प्राप्ति और मुख्य फल है केवलज्ञान की प्राप्ति । अर्थात् ज्ञानाराधना के आराधक को शीघ्र ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। चारित्र आराधना का अमुख्य फल परिहाराहारर्द्धिक सूक्ष्मचरित्रादि बहुविधोऽभ्युदयः। सार्द्धयोऽप्यमुख्यं फलं चरित्रस्य जानीयात् ॥२४६॥ अन्वयार्थ - परिहाराहारर्द्धिक सूक्ष्म चरित्रादि बहुविधः - परिहार विशुद्धि संयम, आहारक ऋद्धि, सूक्ष्म सांपराय चारित्र आदि बहुत प्रकार के । अभ्युदयः - अभ्युदय। अपि - और । सप्तर्द्धयः - सात प्रकार की ऋद्धियाँ। चरित्रस्य - चारित्र आराधना का। अमुख्यफलं - अमुख्य फल । जानीयात् - जानना चाहिए। अर्थ - परिहार विशुद्धि संयम, सूक्ष्म साम्पराय चारित्र आदि अनेक प्रकार का अभ्युदय और बुद्धि आदि सात ऋद्धियों की प्राप्ति चारित्र आराधना का अमुख्य फल जानना चाहिए। परिहारविशुद्धि संयम का और सूक्ष्म साम्पराय चारित्र का लक्षण चारित्राराधना में लिखा है।

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