Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 369
________________ आराधनासमुच्चयम् ३६० प्रश्न - दृष्टि अमृत और अघोर गुण ब्रह्मचारी में क्या भेद है ? उत्तर - उपयोग की सहायतामुक्त दृष्टि में स्थित लब्धि से संयुक्त दृष्टिविष कहलाते हैं। किन्तु अघोरगुणब्रह्मचारियों की लब्धियाँ सर्वांगगत असंख्यात हैं। इनके शरीर से स्पृष्ट वायु में भी समस्त उपद्रवों को नष्ट करने की शक्ति देखी जाती है, इस कारण दोनों में भेद है। विशेष इतना है कि अशुभ लब्धियों की प्रवृत्ति लब्धियुक्त जीवों की इच्छा के वश से होती है। किन्तु शुभ लब्धियों की प्रवृत्ति दोनों ही प्रकारों से सम्भव है, क्योंकि उनकी इच्छा के बिना भी उक्त लब्धियों की प्रवृत्ति देखी जाती है। जिससे हस्ततल पर रखे हुए रूखे आहारादिक तत्काल ही दुग्धपरिणाम को प्राप्त हो जाते हैं, वह 'क्षीरसावी' ऋद्धि कही जाती है। अथवा जिस ऋद्धि से मुनियों के वचनों के श्रवण मात्र से ही मनुष्यतिर्यञ्चों के दुःखादि शान्त हो जाते हैं, उसे क्षीरसावी ऋद्धि समझना चाहिए। जिस ऋद्धि से मुनि के हाथ में रखे गये रूखे आहारादिक क्षण भर में मधुरस से युक्त हो जाते हैं, वह 'मध्वासव' ऋद्धि है। अथवा जिस ऋषि-मुनि के वचनों के श्रवण मात्र से मनुष्य-तिर्यञ्च के दुखादिक नष्ट हो जाते हैं, वह मध्चासव ऋद्धि है। जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के हाथ में स्थित रूखे आहारादिक क्षणमात्र में अमृतपने को प्राप्त करते हैं, वह 'अमृतस्रावी' ऋद्धि है। अथवा जिस ऋद्धि से महर्षि के वचनों के श्रवणकाल में शीघ्र ही दुःखादि नष्ट हो जाते हैं, वह अमृतस्रावी ऋद्धि है। जिस ऋद्धि से ऋषि के हस्ततल में निक्षिप्त रूखा आहारादिक भी क्षण मात्र में घृतरूप को प्राप्त करता है, वह 'सर्पिरासावी' ऋद्धि है। अथवा जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनीन्द्र के दिव्य वचनों के सुनने से ही जीवों के दुःखादि शान्त हो जाते हैं, वह सर्पिरानावी ऋद्धि है। प्रश्न - अन्य रसों में स्थित द्रव्य का तत्काल ही क्षीरस्वरूप से परिणमन कैसे सम्भव है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि जिस प्रकार अमृतसमुद्र में गिरे हुए विष का अमृत रूप परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियों के समूह से घटित अंजलिपुट से गिरे हुए आहारों का क्षीरस्वरूप परिणमन करने में कोई विरोध नहीं है। लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से संयुक्त जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के आहार से शेष, भोजनशाला में रखे हुए अन्न में से जिस किसी भी प्रिय वस्तु को यदि उस दिन चक्रवर्ती का सम्पूर्ण कटक भी खाये तो भी वह लेशमात्र क्षीण नहीं होती है, वह 'अक्षीणमहानसिक' ऋद्धि है। जिस ऋद्धि से समचतुष्कोण चार धनुषप्रमाण क्षेत्र में असंख्यात मनुष्य-तिर्यंच समा जाते हैं, वह 'अक्षीणमहालय' ऋद्धि है। एक आत्मा में युगपत् अनेक ऋद्धियाँ उत्पन्न नहीं होतीं, यह कोई नियम नहीं है, क्योंकि गणधरों के एक साथ सातों ही ऋद्धियों का सद्भाव पाया जाता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376