Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 367
________________ आराधनासमुच्चयम् ३५८ 'महातप' ऋद्धि के धारक हैं। कारण कि महत्त्व के हेतुभूत तपोविशेष को उपचार से महान् कहा जाता है। वह जिनके होता है वे महातप ऋषि हैं, ऐसा सिद्ध है। अथवा महस् अर्थात् तेजों का हेतुभूत जो तप है, वह उपचार से महा होता है। (तात्पर्य यह कि सातों ऋद्धियों की उत्कृष्टता को प्राप्त होने वाले ऋषि महातप युक्त समझे जाते हैं।) मन, वचन और काय के भेद से बल ऋद्धि तीन प्रकार की है। इनमें से जिस ऋद्धि के द्वारा श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय इन दो प्रकृतियों का उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर मुहूर्त मात्र काल के भीतर अर्थात् अन्तर्मुहूर्त काल में सम्पूर्ण श्रुत का चिन्तन करता है, जानता है, वह 'मनोबल' नामक ऋद्धि है। जिह्वेन्द्रियावरण, नोइन्द्रियावरण, श्रुननानातरण और नीमन्तः या उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर जिस ऋद्धि के प्रगट होने से मुनि श्रमरहित और अहीनकंठ होता हुआ मुहूर्त मात्र काल के भीतर सम्पूर्ण श्रुत को जानता व उच्चारण करता है, उसे 'वचनबल' नामक ऋद्धि जानना चाहिए। जिस ऋद्धि के बल से वीर्यान्तराय प्रकृति के उत्कृष्ट क्षयोपशम की विशेषता होने पर मुनि, मास व चातुर्मासादि रूप कायोत्सर्ग को करते हुए भी श्रम से रहित होते हैं तथा शीघ्रता से तीनों लोकों को कनिष्ठ अंगुली के ऊपर उठाकर अन्यत्र स्थापित करने में समर्थ होते हैं, वह 'कायबल' नामक ऋद्धि है। असाध्य भी सर्वरोगों की निवृत्ति की हेतुभूत औषध ऋद्धि आठ प्रकार की है - आमर्ष, श्वेल, जल्ल, मल्ल, विट्, सर्व आस्याविष और दृष्टिविष । जिस ऋद्धि के प्रभाव से जीव पास में आने पर ऋषि के हस्त व पादादि के स्पर्शमात्र से ही नीरोग हो जाते हैं, वह 'आमाँषधि' ऋद्धि है। जिस ऋद्धि के प्रभाव से लार, कफ, अक्षिमल और नासिकामल शीघ्र ही जीवों के रोगों को नष्ट करते हैं , वह 'श्वेलौषधि' ऋद्धि है। पसीने के आश्रित अंगरज जल्ल कहा जाता है। जिस ऋद्धि के प्रभाव से उस अंगरज से भी जीवों के रोग नष्ट होते हैं, वह 'जल्लौषधि' ऋद्धि कहलाती है। जिस शक्ति से जिह्वा, ओठ, दाँत, नासिका और श्रोत्रादिक का मल भी जीवों के रोगों को दूर करने वाला होता है, वह 'मलौषधि' नामक ऋद्धि है। तप के प्रभाव से जिनका स्पर्श समस्त औषधियों के स्वरूप को प्राप्त हो गया है, उनकी 'आमौषधि प्राप्त' ऐसी संज्ञा है। इनका अघोरगुण ब्रह्मचारियों में अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि इनके अर्थात् अघोरगुण ब्रह्मचारियों के केवल व्याधि के नष्ट करने में ही शक्ति देखी जाती है पर इनका स्पर्श औषध रूप नहीं होता। जिस ऋद्धि के बल से दुष्कर तप से युक्त मुनियों का स्पर्श किया हुआ जल व वायु तथा उनके रोम और नखादिक व्याधि के हरने वाले हो जाते हैं, वह सौषधि नामक ऋद्धि है। रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा, शुक्र, पुष्फस, खरीष, कालेय, मूत्र, पित्त, अंतड़ी,

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