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आराधनासमुच्चयम्
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प्रश्न - आहारक ऋद्धि के साथ मनःपर्ययज्ञान का तो विरोध देखा जाता है।
उत्तर - यदि आहारक ऋद्धि के साथ मन:पर्यय ज्ञान का विरोध देखने में आता है, तो रहा आवे। किन्तु मन:पर्यय के साथ विरोध है, इसलिए आहारक ऋद्धि का दूसरी सम्पूर्ण ऋद्धियों के साथ विरोध है, ऐसा नहीं कहा जाता है। अन्यथा अव्यवस्था की आपत्ति आ जायेगी।
अणिमादि लब्धियों से सम्पन्न प्रमत्तसंयत जीव के विक्रिया करते समय आहारक शरीर की उत्पत्ति सम्भव नहीं है।
छठे गुणस्थान में वैक्रियिक और आहारक शरीर की क्रिया युगपत् नहीं होती और योग भी नियम से एक काल में एक ही होता है। इस प्रकार तप के प्रभाव से अनेक ऋद्धियाँ उत्पन्न होती हैं।
चारित्राराधना से उत्पन्न होने वाला मुख्य फल्न भवति यथाख्याताख्यं, चरित्रं नि:शेषवस्तुसमभावम्।
मुख्यफलं तद्विद्याच्चारित्राराधनाप्रभवम् ॥२४७ ॥ अन्वयार्थ - चारित्राराधनाप्रभवं - चारित्र आराधना से उत्पन्न । निःशेषवस्तुसमभावं - सर्व वस्तुओं में समभाव रखने वाला । यथाख्याताख्यं - यथाख्यात नामक । चरित्रं - चारित्र की उत्पत्ति है। तत् - वह । मुख्यफलं - मुख्यफल। विद्यात् - जानो।
____ अर्थ - सर्व वस्तुओं में समभाव रखने वाले यथाख्यात चारित्र की उत्पत्ति ही चारित्राराधना का मुख्यफल है अर्थात् चारित्राराधना का अमुख्य फल ऋद्धियों की उत्पत्ति और स्वर्ग-सम्पदा आदि अभ्युदय है और मुख्यफल यथाख्यात नामक चारित्र की उत्पत्ति है। (यथाख्यात चारित्र का लक्षण चारित्राराधना में लिखा है।)
तपाराधना का फल सम्यग्दृशि देशयत्तौ विरतेऽनन्तानुबन्धिविनियोगे। दर्शनमोहक्षपके कषायशमके तदुपशान्ते ॥२४८ ॥ क्षपके क्षीणकषाये जिनेष्वसंख्येयसंगुणश्रेण्या।
निर्जरणं दुरितानां तपसो मुख्यं फलं भवति ।।२४९॥ युग्मम् । अन्वयार्थ - सम्यग्दृशि - सम्यग्दृष्टि के। देशयतौ - देशविरति के। विरते - छठे-सातवें गुणस्थानस्थ मुनि के। अनन्तानुबन्धि-विनियोगे - अनन्तानुबंधी का विसंयोजन करने वाले के। दर्शनमोहक्षपके - दर्शन मोह का क्षय करने वाले के। कषायशमके - उपशम श्रेणी पर आरूढ़ होने वाले के। तदुपशान्ते - सर्व कषायों का उपशमन करके ११वें गुणस्थान में स्थित के। क्षपके - क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होने वाले के। क्षीणकषाये - क्षीणकषाय नामक १२वें गुणस्थान में। जिनेषु - जिनेन्द्रभगवान के