________________
आराधनासमुच्चयम् ३५९
उच्चार अर्थात् मल आदिक सब जिनके औषधिपने को प्राप्त हो गये हैं, वे सर्वोषधि प्राप्त जिन हैं।
जिस ऋद्धि से तिक्तादिक रस व विष से युक्त विविध प्रकार का अन्न वचन मात्र से ही निर्विषता को प्राप्त हो जाता है, वह 'वचननिर्विष' नामक ऋद्धि है। उग्र विष से मिला हुआ भी आहार जिनके मुख में जाकर निर्विष हो जाता है, अथवा जिनके मुख से निकले हुए वचन के सुनने मात्र से महाविष व्याप्त भी कोई व्यक्ति निर्विष हो जाता है, वे 'आस्याविष' हैं। अथवा जिस ऋद्धि के प्रभाव से बहुत व्याधियों युक्त जीव ऋषि के वचन को सुनकर ही झट से नीरोग हो जाया करते हैं, वह वचन निर्विष नामक ऋद्धि है। रोग और विष से युक्त जीव, ऋषि के वचन को सुनकर ही झट से नीरोग हो जाया करते हैं, वह वचन निर्विष नामक ऋद्धि है। रोग और विष से युक्त जीव जिस ऋद्धि के प्रभाव से झट देखने मात्रसे ही नीरोगता और निर्विषता को प्राप्त कर लेते हैं, वह 'दृष्टिनिर्विष' ऋद्धि है।
से
जिस शक्ति से दुष्कर तप से युक्त मुनि के द्वारा 'मर जाओ' इस प्रकार कहने पर जीव सहसा मर जाता है, वह आशीर्विष नामक ऋद्धि कही जाती है।
अविद्यमान अर्थ की इच्छा का नाम आशिष है। आशिष है विष (वचन) जिनका वे आशीर्विष कहे जाते हैं । 'मर जाओ' इस प्रकार जिनके प्रति निकला हुआ जिनका वचन उसे मारता है। “भिक्षा के लिए भ्रमण करो" ऐसा वचन शिर को छेदता है, (अशुभ) ये आशीर्विष नामक साधु हैं।
प्रश्न वचन के विष संज्ञा कैसे संभव है ?
उत्तर - विष के समान विष है। इस प्रकार उपचार से वचन को विष संज्ञा प्राप्त है। आशिष है अविष अर्थात् अमृत जिनका वे (शुभ) आशीर्विष हैं। स्थावर अथवा जंगम विष से पूर्ण जीवों के प्रति 'निर्विष हो' इस प्रकार निकला हुआ, उन्हें जिलाता है, व्याधि, वेदना और दारिद्र्य आदि के विनाश हेतु निकला हुआ जिनका वचन उस कार्य को करता है, वे भी आशीर्विष हैं, यह सूत्र का अभिप्राय है।
-
जिस ऋद्धि के बल से रोषयुक्त हृदय वाले महर्षि से देखा गया जीव सर्प द्वारा काटे गये के समान मर जाता है, वह दृष्टि - विषनामक ऋद्धि है।
दृष्टि शब्द से यहाँ चक्षु और मन (दोनों) का ग्रहण है, क्योंकि उन दोनों में दृष्टि शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है। उनकी सहचरता से क्रिया का भी ग्रहण है। रुष्ट होकर वह यदि 'मारता हूँ' ऐसा इस प्रकार देखता है, (या) सोचता है, वह क्रिया करता है तो मारता है तथा क्रोधपूर्वक अवलोकन से अन्य भी अशुभ कार्य को करने वाला (अशुभ) दृष्टिविष कहलाता है |
इसी प्रकार दृष्टि अमृतों का भी लक्ष्य जानकर कहना चाहिए। (अर्थात् प्रसन्न होकर वह यदि 'नीरोग करता हूँ' इस प्रकार देखता है, (या) सोचता है, या क्रिया करता है, तो नीरोग करता है तथा प्रसन्नता पूर्वक अवलोकन से अन्य भी शुभ कार्य को करने वाला दृष्टि अमृत कहलाता है | )