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आराधनासमुच्चयम् ३५५
जो ऋषि जलकायिक जीवों को बाधा न पहुँचाकर जल को न छूते हुए इच्छानुसार भूमि के समान जल में गमन करने में समर्थ हैं, वे जलचारण कहलाते हैं (जल पर भी पादनिक्षेपपूर्वक गमन करते हैं) । ओस, ओला, कुहरा और बर्फ आदि पर गमन करने वाले चारणों का जलनारणों में अन्तर्भाव होता है । क्योंकि इनमें जलकायिक जीवों के परिहार की कुशलता देखी जाती है ।
चार अंगुल प्रमाण पृथिवी को छोड़कर आकाश में घुटनों को मोड़े बिना या जल्दी-जल्दी जंघाओं का उत्क्षेप (क्षेप ) निक्षेप करते हुए बहुत योजनों तक गमन करता है, वह जंघाचारण ऋद्धि है।
भूमि में पृथिवीकायिक जीवों को बाधा न करके अनेक सौ योजन गमन करने वाले जंघाचारण कहलाते हैं। कीचड़, भस्म, गोबर और भूसे आदि पर से गमन करने वालों का जंघाचारणों में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि भूमि से कीचड़ आदि में कथंचित् अभेद है।
अग्निशिखा में स्थित जीवों की विराधना न करके उन विचित्र अग्निशिखाओं पर से गमन करने को 'अग्निशिखाचारण' ऋद्धि कहते हैं। जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनिजन नीचे से ऊपर और तिरछे फैलने वाले धुएँ का अवलम्बन करके अस्खलित पादक्षेप देते हुए गमन करते हैं, वह धूमचारण नामक ऋद्धि है। जिस ऋद्धि से मुनि अप्कायिक जीवों को पीड़ा न पहुँचाकर बहुत प्रकार के मेघों पर से गमन करता है वह 'मेघचारण' नामक ऋद्धि है। जिसके द्वारा मुनि महर्षि शीघ्रता से किये गये पद- विक्षेप से अत्यन्त लघु होते हुए मकड़ी के तन्तुओं की पंक्ति पर से गमन करता है, वह 'मकड़ीतन्तुचारण' ऋद्धि है। जिसके प्रभाव से मुनि नाना प्रकार की गति से युक्त वायु के प्रदेशों की पंक्ति पर से अस्खलित होकर पदविक्षेप करते हैं, वह 'मारुतचारण' ऋद्धि है।
धूम, अग्नि, वायु और मेघ आदि के आश्रय से चलने वाले चारणों का 'तन्तु श्रेणी' चारणों में अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि वे अनुलोम और प्रतिलोम गमन करने में जीवों को पीड़ा न करने की शक्ति से संयुक्त हैं।
जिसके प्रभाव से मुनि मेघों से छोड़ी गयी जलधाराओं में स्थित जीवों को पीड़ा न पहुँचाकर उनके ऊपर से जाते हैं, वह धाराचारण ऋद्धि है। जिससे तपस्वी नीचे ऊपर और तिरछे फैलने वाली ज्योतिषी देवों के विमानों की किरणों का अवलम्बन करके गमन करता है, वह ज्योतिश्चारण ऋद्धि है।
जिस ऋद्धि का धारक मुनि वनफलों में, फूलों में तथा पत्तों में रहने वाले जीवों की विराधना न करके उनके ऊपर से जाते है, वह फलचारण, पुष्पचारण तथा पत्रचारण नामक ऋद्धि है।
तन्तुचारण, फलचारण, पुष्पचारण और बीजचारण का स्वरूप भी जलचारणों के समान कहना चाहिए (अर्थात् उनमें रहने वाले जीवों को पीड़ा न पहुँचाकर उनके ऊपर गमन करना) । कुंथुजीव, मत्कुण और पिपीलिका आदि पर से संचार करने वालों का फलचारणों में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि इनमें त्रस