Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 361
________________ आराधनासमुच्चयम् -- ३५२ महारोहिण्यादि लौकिक विद्याओं के प्रलोभन में न पड़कर दशपूर्व का पाठी होता है, वह दशपूर्वित्व है। भिन्न अथवा अभिन्न के भेद से दशपूर्वी दो प्रकार हैं। उनमें ११ अंगों को पढ़कर पश्चात् परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इन पाँच अधिकारों में निबद्ध दृष्टिवाद के पढ़ते समय उत्पाद पूर्व को आदि करके पढ़ने वाले के दशमपूर्व विद्यानुवाद के समाप्त होने पर अंगुष्ठप्रसेनादि सात सौ क्षुद्र विद्याओं से अनुगत रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याएँ भगवान् क्या आज्ञा देते हैं ऐसा कहकर उपस्थित होती हैं। इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओं के लाभ को प्राप्त होता है, वह भिन्न दशपूर्वी है। किन्तु जो कर्मक्षय का अभिलाषी होकर उनमें लोभ नहीं करता है, वह अभिन्नदशपूर्वी कहलाता है। भिन्नदशपूर्वियों के जिनत्व नहीं है, क्योंकि जिनके महाव्रत नष्ट हो चुके हैं, उनमें जिनत्व घटित नहीं होता। आठ महानिमित्तों में कुशलता अष्टांग महानिमित्तज्ञता है। नैमित्तिक ऋद्धि अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, चिह्न (छिन्न) और स्वप्न इन आठ भेदों से विस्तृत है। वहाँ स्वप निमित्तज्ञान के चिह्न और मालारूप से दो भेद हैं। सूर्य, चन्द्र और ग्रह इत्यादि के उदय व अस्तमान आदिकों को देखकर जो क्षीणता और सुख-दुख (जन्म-मरण) को जानता है, वह नभ या अन्तरिक्ष निमित्तज्ञान है। पृथ्वी के घन, सुषिर (पोलापन) स्निग्धता और रुक्षता प्रभृति गुणों को विचार कर जो ताँबा, लोहा, सुवर्ण और चांदी आदि धातुओं की हानिवृद्धि को तथा दिशा-विदिशाओं के अन्तराल में स्थित चतुरंग बल को देखकर जो जय-पराजय को भी जानता है, उसे भीम निमित्तज्ञान कहा गया है। मनुष्यों और तिर्यंचों के निम्न व उन्नत अंगोपांगों के दर्शन व स्पर्श से वात, पित्त, कफ रूप तीन प्रकृतियों और रुधिरादि सात धातुओं को देखकर तीनों कालों में उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख या मरणादि को जानना, यह अंगनिमित्त नाम से प्रसिद्ध है। मनुष्यों और तिर्यचों के विचित्र शब्दों को सुनकर कालत्रय में होने वाले सुख-दुःख को जानना, यह स्वर निमित्तज्ञान है। सिर, मुख और कन्धे आदि पर तिल एवं मस्से आदि को देखकर तीनों काल के सुखादिक को जानना, यह व्यञ्जन निमित्तज्ञान है। हाथ, पाँव के नीचे की रेखायें, तिल आदि देखकर त्रिकाल सम्बन्धी सुखदुःखादि को जानना सो लक्षण निमित्त है। देव, दानव, राक्षस, मनुष्य और तिर्यञ्चों के द्वारा छेदे गये शस्त्र एवं वस्त्रादिक तथा प्रासाद, नगर और देशादिक चिह्नों को देखकर त्रिकालभावी शुभ, अशुभ, मरण, विविध प्रकार के द्रव्य और सुख-दुःख को जानना, यह चिह्न या छिन्न निमित्तज्ञान है। वात, पित्तादि दोषों से रहित व्यक्ति, सोते हुए रात्रि के पश्चिम भाग में अपने मुखकमल में प्रविष्ट चन्द्र-सूर्यादि रूप शुभस्वप्न को और घृत व तेल की मालिश आदि, गर्दभ व ऊँट आदि पर चढ़ना तथा परदेशगमन आदि रूप जो अशुभ स्वप्न को देखता है, इसके फलस्वरूप तीन काल में होने वाले दुःख-सुखादिक को बतलाना यह स्वप्न निमित्त है। इसके चिह्न और मालारूप दो भेद हैं। इनमें से स्वप्न में हाथी, सिंहादिक के दर्शन मात्र आदिक को चिह्नस्वप्न और पूर्वापर सम्बन्ध रखने वाले स्वप्न को माला स्वप्न कहते हैं।

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