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आराधास्तुरच-ग्
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श्रोत्रेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय का उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का उदय होने पर श्रोत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट क्षेत्र से बाहर दशों दिशाओं में संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित मनुष्य एवं तिर्यञ्चों के अक्षरानक्षरात्मक बहुत प्रकार के उठने वाले शब्दों को सुनकर जिससे (युगपत्) प्रत्युत्तर दिया जाता है, वह संभिन्न श्रोतृत्व नामक बुद्धि ऋद्धि कहलाती है। यह ऋद्धि बहु, बहुविध और क्षिप्त (मति) ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से होती है।
इन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय इन तीन प्रकृतियों के उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नाम कर्म के उदय होने पर उस सम्बन्धित विषयों को जान लेना उस-उस नाम की ऋद्धि है। यथा जिला इन्द्रियावरण के क्षयोपशम से 'दूरास्वादित्व', स्पर्शन इन्द्रियावरण के क्षयोपशम से 'दूरस्पर्शत्व'. ‘घ्राणेन्द्रियावरण के क्षयोपशम से 'दूरघ्राणत्व', श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशम से 'दूरश्रवणत्व' और चक्षुरिन्द्रियावरण के क्षयोपशम से 'दूरदर्शित्व' ऋद्धि होती है।
श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय का उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर 'प्रज्ञाश्रमण' ऋद्धि उत्पन्न होती है। प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि से युक्त महर्षि बिना अध्ययन किये ही चौदह पूर्वो में विषय की सूक्ष्मता को लिये हुए सम्पूर्ण श्रुत को जानता है और उसको नियमपूर्वक निरूपण करता है, उसकी बुद्धि को प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि कहते हैं। वह औत्पत्तिकी, पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा, इन भेदों से चार प्रकार की जाननी चाहिए।
विनय से अधीत श्रुतज्ञान यदि किसी प्रकार प्रमाद से विस्मृत हो जाता है तो उसे वह पूर्वभव में उपस्थित करती है और केवलज्ञान को बुलाती है, यह औत्पत्तिकी प्रज्ञाश्रमण छह मास के उपवास से कृश होता हुआ भी उस बुद्धि के माहात्म्य को प्रकट करने के लिए पूछने रूप क्रिया में प्रवृत्त हुए चौदह पूर्वी को भी उत्तर देता है। निज-निज जाति विशेषों में उत्पन्न हुई बुद्धि पारिणामिकी' है। द्वादशांग श्रुत के योग्य विनय से उत्पन्न होने वाली 'वैनयिकी' और उपदेश के बिना ही विशेष तप की प्राप्ति से आविर्भूत हुई चतुर्थ 'कर्मजा' प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि समझनी चाहिए।
जिसके द्वारा गुरु-उपदेश के बिना ही कर्मों के उपशम से सम्यग्ज्ञान और तप के विषय में प्रगति होती है, वह प्रत्येकबुद्धि ऋद्धि कहलाती है।
____ जो महर्षि सम्पूर्ण आगम के पारंगत हैं और श्रुतकेवली नाम से प्रसिद्ध हैं, उनके चौदह पूर्वी नामक बुद्धि ऋद्धि होती है। पूर्ण श्रुतकेवली हो जाना चतुर्दशपूर्वीत्व नामकी ऋद्धि होती है।
___ दसवें पूर्व के पठन में रोहिणी प्रभृति महाविद्याओं के पाँच सौ और अंगुष्ठप्रसेनादिक (प्रश्नादिक) क्षुद्र विद्याओं के सात सौ देवता आकर आज्ञा माँगते हैं। इस समय जो महर्षि जितेन्द्रिय होने के कारण उन विद्याओं की इच्छा नहीं करते हैं, वे 'विद्याश्रमण' इस पर्याय नाम से भुवन में प्रसिद्ध होते हुए अभिन्नदशपूर्वी कहलाते हैं। उन मुनियों की बुद्धि को दशपूर्वी जानना चाहिए।