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आराधनासमुच्चयम् ७ ३४३
ग्रीष्मकाल की प्रचण्ड गर्म वायु आदि से उत्पन्न वेदना को समतापूर्वक सहन करना उष्ण परिषह जय है।
डाँस, मच्छर आदि द्वारा होने वाले कष्ट को सहन करना दंशमशक परिषह जय है।
नग्नता से अपने मन में किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होने देना, नाग्न्य परिषह जय है। मान्य से भी प्रहाच्छी तार का निर्दोष त्व होता है।
इन्द्रिय विषयों से विरक्त होकर संगीत आदि से रहित शून्य गृह-वृक्ष कोटर आदि में निवास करना तथा स्वाध्याय में लीन रहना अरति परिषह जय है।
स्त्रियों के भ्रूविलास, नेत्र कटाक्ष, शृंगार आदि को देखकर मानसिक विकार उत्पन्न नहीं होना, कछुए के समान इन्द्रियों और मन का संयमन करना स्त्री परिषह जय है।
नंगे पैर चलते समय कंकड़, काँटे आदि के चुभने पर उत्पन्न वेदना को समतापूर्वक सहन करना चर्या परिषह जय है।
___ ध्यान स्वाध्याय के लिए नियत काल पर्यन्त स्वीकार किये गये आसन से देवादिकृत उपसर्ग आने पर भी च्युत नहीं होना निषद्या परिषह जय है।
ऊंची-नीची, कंकड़, बालू आदि से कठोर भूमि पर एक करवट से लकड़ी पत्थर के समान निश्चल सोना शय्या परिषह जय है।
दुष्ट और अज्ञानी जनों के द्वारा कहे गये कठोर वचन व असत्य दोषारोपण को सुनकर हृदय में रंच मात्र भी कषाय नहीं करना आक्रोश परिषह जय है।
तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रों के द्वारा शरीर पर प्रहार करने वाले पर भी द्वेष नहीं करना, अपितु उसे पूर्वोपार्जित कर्म का फल जान कर शांतिपूर्वक सहन करना वध परिषह जय है।
__तप या रोग के द्वारा शरीर के सूख कर अस्थि-पंजर मात्र बन जाने पर भी दीन वचन, मुख-वैवर्ण्य आदि के द्वारा भोजन-औषधि आदि की याचना नहीं करना याचना परिषह जय है।
अनेक दिनों तक आहार न मिलने पर भी मन में खेद नहीं करना, लाभ की अपेक्षा अलाभ को ही तप का हेतु समझना अलाभ परिषह जय है।
शारीरिक रोगों के उत्पन्न होने पर भी रंच मात्र मानसिक आकुलता का नहीं होना, औषधि आदि से उसके प्रतिकार की भावना नहीं करना रोग परिषह जय है।
चलते समय काँटे आदि के चुभने पर खेद-खिन्न नहीं होना तृणस्पर्श परिषह जय है।