________________
आराधनासमुच्चयम् ७ ३४१
देखकर गमन किया जाता है तथा जो शीघ्र विलम्बित, सम्भाषण पिचित, पीला, विकास, अन्य दिशाओं की ओर देखना आदि गमन के दोषों से रहित गतिवाली है, वह ईर्यापथ शुद्धि है।
शास्त्रोक्त विधि से ४६ दोषों का परिहार करके आहार लेना, आहार की शुद्धि रखना भिक्षा शुद्धि है। जैन ग्रन्थों के अनुसार दिगम्बर साधुओं का आहार भिक्षा होती है, भोजन नहीं। उस भिक्षा के चार नाम हैं- गोचरी, भ्रामरी अक्षम्रक्षण और गर्त्तपूर्ण |
जिस प्रकार गाय घास खाती है, परन्तु घास डालने वाले की तरफ नहीं देखती है, किसी पर गुस्सा नहीं करती है, अपने उदर भरने का सिर्फ अभिप्राय रहता है, उसी प्रकार दिगम्बर साधु आहार करते समय इधर-उधर नहीं देखते, इशारा संकेत आदि नहीं करते, दाता के वस्त्र आभूषण का अवलोकन नहीं करते, इसप्रकार निर्दोष शुद्ध छियालीस दोष रहित प्रासुक आहार करना गोचरी कहलाती है।
जिस प्रकार भ्रमर फूलों का रस चूसता है, परन्तु फूल को कष्ट नहीं देता है; जैसे-जैसे कमल का रस चूसता है, वैसे-वैसे कमल विकसित होता है, उसी प्रकार दिगम्बर साधु जिस श्रावक के घर आहार करता है, उस श्रावक को कष्ट का अनुभव नहीं होता, अपितु उसका मन रूपी कमल अधिक आनन्दित होकर विकसित होता है। अतः उस भिक्षा को भ्रामरी कहते हैं।
जिस प्रकार गाड़ी के पहियों में तेल लगाकर चलाते हैं, उसे अक्षम्रक्षण कहते हैं, वह ओंगन गाड़ी चलाने के लिए होता है; उसी प्रकार तप, संयम एवं ज्ञान के साधनभूत शरीर को सुरक्षित रखने के लिए ओंगन के समान जो सरस - नीरस आहार लिया जाता है, उसको अक्षप्रक्षण कहते हैं।
जैसे पत्थर, मिट्टी डालकर गड्डा भरा जाता है, उसी प्रकार सुस्वादु वा नीरस आदि का विचार न करके संयम, तप एवं ज्ञान के साधनार्थ उदर भरा जाता है, उसको गर्त्तपूरण कहते हैं।
इस प्रकार साधु की निर्दोष चर्या होती है। प्रासुक, शुद्ध आहार ग्रहण किया जाता है, वह भिक्षा
शुद्धि है।
भिक्षाशुद्धि से चारित्र निर्मल एवं शुद्ध होता है । कमण्डलु, शास्त्र आदि उपकरणों को उठानारखना, मल-मूत्र आदि निक्षेपण करने की शुद्धि रखना, शास्त्रोक्त विधि से मल, मूत्र, नख, केश, कफ आदि का निक्षेपण करना प्रतिष्ठापन शुद्धि है।
शास्त्रोक्त विधि से शयन करना और बैठना शयनासन शुद्धि है।
संयम की रक्षा करने वाली ये आठ शुद्धियाँ हैं :
आलोचना शुद्धि, शय्यासंस्तर शुद्धि, उपकरण शुद्धि, भक्तपान शुद्धि, वैयावृत्य शुद्धि, सल्लेखना सम्बन्धी शुद्धि आदि जितनी शुद्धियों हैं, वे सारी चारित्र सम्बन्धी शुद्धियाँ उपरिकथित आठ प्रकार की शुद्धियों में गर्भित हो जाती हैं !