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आराधनासमुच्चयम् ३४४
__पसीना आदि से शरीर पर धूलि आदि के जम जाने पर उत्पन्न खुजली आदि से खेद-खिन्न नहीं होना, शरीर को नहीं खुजलाना मल परिषह जय कहलाता है।
प्रशंसा करने को सत्कार तथा किसी कार्य में किसी को प्रधान बना देना पुरस्कार है। लोगों द्वारा सत्कार तथा किसी कार्य में पुरस्कार न दिये जाने पर भी मलिन चित्त नहीं होना, सत्कार-पुरस्कार परिषह जय है।
तर्क, व्याकरण, साहित्य, छन्द, अलंकार, अध्यात्मशास्त्र आदि विद्याओं में निपुण होने पर भी ज्ञान का मद नहीं करना प्रज्ञा परिषह जय है। सकल शास्त्रों के पारगामी होने पर भी दूसरों के द्वारा कियेगये 'यह महामूर्ख' आदि आक्षेपों को सुनकर मन में कषायों का प्रादुर्भाव नहीं होना अज्ञान परिषह जय है।
चिरकाल तक तप करने पर भी ऋद्धियों आदि के उत्पन्न न होने पर यह विचार नहीं करना कि यह दीक्षा निष्फल है, व्रतों का धारण करना व्यर्थ है, यह अदर्शन परिषह जय है।
इन बाईस परिषहों को सहन करने से आस्रव का निरोध करने वाली (संवरपूर्वक) निर्जरा होती है। जो मुनि इन बाईस परिषहों को शक्ति अनुसार सहन करते हैं तथा जो संवरपूर्वक निर्जरा करने में तत्पर हैं, उनके संवरपूर्वक निर्जरा होती है। इन बाईस परिषहों को सहन करना तप आराधना का उपाय है अर्थात् परिषहों को सहन करने वाला ही तपस्वी होता है। अतः तप आराधना के इच्छुक प्राणी को बाईस परिषहों को सहन करने का अभ्यास करना चाहिए।
वीर्यान्तराय का क्षयोपशम, चारित्रमोहोपशम-क्षयोपशम और अंगोपांग नाम कर्मोदय की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा जो भायी जाती हैं, जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है, वे भावना हैं।
जाने हुए अर्थ का पुन:-पुनः चिन्तन करना भावना है। तपोभावना, श्रुतभावना, सत्त्व भावना, एकत्व भावना और धृतिबल भावना ऐसी पाँच भावनाएँ तप आराधना की कारण हैं।
तपश्चरण से इन्द्रियों का मद नष्ट होता है, इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं, जिससे रत्नत्रय में स्थिरता होती है, साधुगण उसे तपोभावना कहते हैं।
श्रुतभावना करना अर्थात् तद्विषयक ज्ञान में बारम्बार प्रवृत्ति करना श्रुत भावना है। इस श्रुतज्ञान की भावना से सम्यग्ज्ञान, दर्शन, तप, संयम इन गुणों की प्राप्ति होती है।
देवों से उपद्रव किया गया हो, भयंकर व्याघ्रादिरूप धारण कर पीड़ित किया गया हो तो मुनि जिस भावना को हृदय में रखकर, दुखों को सहन कर और निर्भय होकर संयम का सम्पूर्ण भार धारण करता है उसे सत्त्व भावना कहते हैं।
एकत्व भावना का आश्रय लेकर विरक्त हृदय से मुनि कामभोग में, चतुर्विध संघ में और शरीर