Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 351
________________ आराधनासमुच्चयम् ३४२ इस प्रकार व्रत, समिति, गुप्ति, संयम, शुभलेश्या, ध्यान, भावना, धर्म, शुद्धि आदि गुणों का अभ्यास करना चारित्र आराधना का उपाय है। द्वाविंशतिभेदपरीषहविजयः सत्त्वभावनादीनाम् । अभ्यासश्च भवेदिह तपसो ह्याराधनोपायः ॥ २४० ॥ अन्वयार्थ विंशतिभेदपरीषहविजयः बावीस परीषह पर विजय प्राप्त करना। सत्त्वभावनादीनां सत्त्व आदि भावनाओं का अभ्यासः - अभ्यास करना । इह इसलोक में। हि - निश्चय से । तपसः तपकी । आराधनोपायः आराधना का उपाय । भवेत् होता है। - - - - - अर्थ - इस लोक में बावीस परीषह को सहन करना, सत्त्वादि भावनाओं का अभ्यास करना, चिंतन करना, मनन करना, आत्मसात् करना तप आराधना का उपाय है अर्थात् बावीस परीषह विजयी निरंतर सत्त्वादि भावनाओं का चिंतन करता है, वही तप का आराधक होता है। मार्ग से च्युत नहीं होने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा करने के लिए जो सहन की जाती है, उसे परिषह कहते हैं । संवरलक्षण मार्ग से अच्यवन, . सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र रूप मोक्षमार्ग से च्युत नहीं होने के लिए जिनका अनुशीलन अभ्यास किया जाता है; जिनके सहन करने से कर्मों की निर्जरा होती है, इसलिए उन परिषह को सहन करना परिषहजय कहलाता है। इन परिषहों को सहन करने से कर्मों के आगमनद्वार का आच्छादन होता है। परिषह को सहन करने से संवर भी होता है। औपक्रमिक कर्मों के फल भोगते हुए मुनिजन निर्जरण कर्म वाले हो जाते हैं और क्रम से मोक्षफल को प्राप्त करते हैं। क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परिषह हैं। निर्दोष आहार न मिलने पर अथवा अल्प आहार मिलने पर मानसिक खेद नहीं होना व कर्मनिर्जरा के लिए समतापूर्वक क्षुधा वेदना को सहन करना क्षुधा परिषहजय कहलाता है। अपितु उपवास व गर्मी आदि के कारण तीव्र प्यास लगने पर भी उसका प्रतिकार नहीं करना, सन्तोष रूपी जल के द्वारा प्यास को शांत करना तृषापरिषह जय है । शीतकालीन ठण्डी वायु या हिम की असह्य शीत को शांति पूर्वक सहन करना शीतपरिषह जय

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