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आराधनासमुच्चयम् - ३३९
शुद्धि भी चारित्र आराधना का उपाय है। शुद्धि का अर्थ पवित्रता है। वह शुद्धि (पवित्रता) अंतरंग और बहिरंग के भेद से दो प्रकार की है ; बहिरंग शुद्धि वा लौकिक शुद्धि आठ प्रकार की है। काल शुद्धि, अग्नि शुद्धि, भस्म शुद्धि, मृतिका शुद्धि, गोबर शुद्धि, जल शुद्धि, ज्ञानशुद्धि और निर्विचिकित्सा शुद्धि।
कुछ काल निकलने के बाद जो शुद्धि होती है, उसे कालशुद्धि कहते हैं। जैसे प्रसूति वाली स्त्री की शुद्धि ४५ दिन के बाद होती है, कि काम वाली र शुद्धि पाँच दिन या चतुर्थ दिन में होती है। जिस घर में बालक उत्पन्न हुआ है, उस परिवार की शुद्धि दसवें दिन तथा मृतक के परिवार की शुद्धि १२वें दिन होती है, इत्यादि कालशुद्धि है। मांसाहारी या मासिक धर्म वाली स्त्री के भोजन करने पर उस बर्तन की शुद्धि अग्नि से तपाने पर होती है। जूठे बर्तनों को भस्म (राख) से माँजने पर शुद्धि होती हैं। मल, मूत्र करके आने पर मिट्टी से हाथ धोने से शुद्धि होती है, वह मृतिका शुद्धि है। कच्चे आँगन को गोबर से लीपने से शुद्धि होती है। वस्त्र आदि की जल से प्रक्षालन करने से शुद्धि होती है, वह जलशुद्धि है।
किसी वस्तु के प्रति भ्रान्ति होने से ग्लानि होती है, ज्ञान से वह भ्रान्ति मिट जाती है, वह ज्ञान शुद्धि है।
किसी कारण से धर्मात्माओं के प्रति ग्लानि होती है। उसको छोड़कर मन की शुद्धि करना निर्विचिकित्सा शुद्धि है। इस प्रकार अनेक शुद्धियों का कथन किया है। इन सब शुद्धियों में सभ्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की शुद्धि प्रमुख है, वही चारित्र आराधना का मुख्य उपाय है।
२५ दोष रहित और निःशंकितादि आठ अंग सहित सम्यग्दर्शन धारण करना, सम्यग्दर्शन की घातक अभक्ष्य वस्तुओं के भक्षण करने का त्यागकर सम्यक्त्वाचरण का पालन करना सम्यग्दर्शन की शुद्धि है।
ज्ञान उपार्जन की साधनीभूत स्वाध्याय सम्बन्धी चार शुद्धियाँ होती हैं - द्रव्य शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, काल शुद्धि और भाव शुद्धि।
ज्वर, कुक्षिरोग, शिरोरोग, कुत्सित स्वप्न, रुधिर, अतिसार, पीप, मल-मूत्र के लेप रहित हो तो स्वाध्याय करना, शास्त्र पढ़ना यह द्रव्य शुद्धि है, द्रव्य की अशुद्धि में शास्त्र वाचना नहीं करनी चाहिए।
व्याख्याता से अधिष्ठित प्रदेश की चारों ही दिशाओं में अट्ठाईस हजार धनुष प्रमाण क्षेत्र में विष्ठा, मूत्र, हड्डी, केश, नख और चर्म, मांस आदि का नहीं होना क्षेत्र शुद्धि है।
अथवा मल छोड़ने की भूमि से सौ अरनि (हाथ) प्रमाण दूर, मूत्र छोड़ने की भूमि से पचास हाथ दूर, मनुष्य शरीर सम्बन्धी अवयव के स्थान से पचास धनुषतक तथा तिर्यंच शरीर सम्बन्धी अवयव से २५ धनुष दूर तक के क्षेत्र की भूमि को शुद्ध करना चाहिए।
बिजली गिरना, इन्द्रधनुष, सूर्य-चन्द्रग्रहण का समय, अकालवृष्टि, मेघगर्जन वा मेघ से