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आराकानुदयम् १५०
सामानिक और चौथी के बाहर आभियोग्य आदि रहते हैं। पाँचवीं वेदी के बाहर वन हैं और उनसे भी आगे दिशाओं में लोकपालों के और विदिशाओं में गणिका महत्तरियों के नगर हैं, इसी प्रकार कल्पातीतों के भी विविध प्रकार के प्रासाद, उपपाद सभा, जिनभवन आदि होते हैं। प्रतीन्द्र, सामानिक व त्रायस्त्रिंश में प्रत्येक के १० प्रकार के परिवार अपने-अपने इन्द्रों के समान हैं, सौधर्मादि १२ इन्द्रों के लोकपाल में प्रत्येक के सामन्त क्रम से ४०००, ४०००, १०००, १०००, ५००, ४००, ३००, २००, १००, १००, १००, १०० हैं। समस्त दक्षिणेन्द्रों में प्रत्येक के सोम व यम लोकपाल के अभ्यन्तर आदि तीनों पारिषद के देव क्रम से ५०,४०० व ५०० हैं । वरुण के ६०, ५००, ६०० हैं तथा कुबेर के ७०,६००, ७०० हैं । उत्तरेन्द्रों में इससे विपरीत क्रम करना चाहिए। सोम आदि लोकपालों की सात सेनाओं में प्रत्येक की प्रथम कक्षा २८००० और द्वितीय आदि ६ कक्षाओं में उत्तरोत्तर दुगुनी हैं। इस प्रकार वृषभादि सेनाओं में से प्रत्येक सेना का कुल प्रमाण २८००० १२७ = ३५५६००० हैं और सातों सेनाओं का कुल प्रमाण ३५५६००० × ७ = २४८९२००० हैं । सौधर्म सानत्कुमार व ब्रह्म इन्द्रों के चार-चार लोकपालों में से प्रत्येक के विमानों की संख्या ६६६६६६ है । शेष की संख्या उपलब्ध नहीं है, सौधर्म के सोमादि चारों लोकपालों के प्रधान विमानों के नाम क्रम से स्वयंप्रभ, अरिष्ट, चलप्रभ और वल्गुप्रभ हैं। शेष दक्षिणेन्द्रों में सोमादि उन लोकपालों के प्रधान विमानों के नाम क्रम से स्वयंप्रभ, वरज्येष्ठ, अंजन और वल्गु हैं। उत्तरेन्द्रों के लोकपालों के प्रधान विमानों के नाम क्रम से सोम (सम), सर्वतोभद्र, सुभद्र और अमित हैं। दक्षिणेन्द्रों के सोम और यम समान ऋद्धि वाले हैं, उनसे अधिक वरुण और उससे भी अधिक कुबेर हैं। उत्तरेन्द्रों के सोम और यम समान ऋद्धि वाले हैं। उनसे अधिक कुबेर और उससे अधिक वरुण होता है। सभी दक्षिणेन्द्रों की ८ ज्येष्ठ देवियों के नाम समान होते हुए क्रम से पद्मा, शिवा, शची, अंजुका, रोहिणी, नवमी, बला और अर्चिनिका हैं और सभी उत्तरेन्द्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम कृष्णा, मेघराजी, रामापति, रामरक्षिता, वसुका, वसुमित्रा, वसुधर्मा और वसुन्धरा ये हैं। छह दक्षिणेन्द्रों की प्रधान वल्लभाओं के नाम हेममाला, नीलोत्पला, विश्रुता, नन्दा, वैलक्षण और जिनदासी ये हैं। इन वल्लभाओं में से प्रत्येक के कामा, कामिनिका, पंकजगन्धा और अलम्बु नाम की चार महत्तरिका होती हैं।
छह दक्षिणेन्द्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम क्रम से शची, पद्मा, शिवा, श्यामा, कालिन्दी, सुलसा, अज्जुका और भानु ये हैं। छहों उत्तरेन्द्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम क्रम से श्रीमती, रामा, सुसीमा, प्रभावती, जयसेना, सुषेणा, वसुमित्रा और वसुन्धरा हैं।
भवनवासी से लेकर ईशान स्वर्ग पर्यन्त देव व देवी दोनों की उत्पत्ति होती है। इससे आगे नियम से देव ही उत्पन्न होते हैं, देवियाँ नहीं। आरण अच्युत स्वर्ग तक देवियों का गमनागमन है, इससे आगे नियम से उनका गमनागमन नहीं है ।
सब ( कल्पवासिनी) देवियाँ सौधर्म और ईशान कल्पों में ही उत्पन्न होती हैं। इससे उपरिम कल्पों में उनकी उत्पत्ति नहीं होती, उन कल्पों में उत्पन्न हुई देवियों को अवधिज्ञान से जानकर सराग मन वाले