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आराधनासमुच्चयम्-२८४
(१३) कृतिकर्मयुक्त - जो स्वयं छह आवश्यक क्रियाओ का आचरण करते हैं, अपने से गुणों में अधिक पुरुषों की तथा गुरुजनों की विनय, सेवा, शुश्रूषा करते हैं, उसे कृतिकर्मयुक्त गुण कहते हैं।
(१४) व्रतारोपण योग्यता - जो नग्न परीषह को सहन करने में समर्थ है, उद्देशिक आदि दोषों से दूषित आहार का त्याग कर सकता है, गुरुजनों की भक्ति में रत है और विनयगुण से विभूषित है, वही मुनिव्रत धारण करने योग्य होता है। उपरिकथित गुण वाले मानव की परीक्षा करके उस पर व्रतारोपण करने वाले आचार्य के गुण को व्रतारोपण योग्यता कहते हैं।
(१५) ज्येष्ठगुणता - जो सर्व मुनियों के आचरण में श्रेष्ठ होते हैं, वही आचार्य होते हैं। यह आचार्यज्येष्ठगुणता १५ वाँ गुण है।
(१६) मासनिवासिता - वर्षायोग को छोड़कर अन्यकाल में मुनीश्वर एक ग्राम में अधिक से अधिक एक महीने तक ठहर सकते हैं, अधिक दिन नहीं। यह इनका एकमास-निवासिता गुण है। अधिक दिन एक जगह रहने पर क्षेत्रादि में अनुराग होता है, गौरव नष्ट हो जाता है, धर्मोपदेश आदि के द्वारा जनता का उपकार नहीं हो सकता और न देश-देशान्तर की भाषा आदि का परिज्ञान होता है। सुकुमारपना, आहार की लोलुपता, आलस्य, श्रावकों से अनुराग आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। अत: मासनिवासिता यह गुण कहा गया है आचार्यश्री का। इसका दूसरा नाम षण्मासयोगी है अर्थात् चातुर्मास में एक महीने पूर्व चातुर्मास करने के स्थान में आ सकते हैं तथा वर्षायोग समाप्त होने के बाद एक महीना और ठहर सकते हैं। शेषकाल में एक महीने से अधिक नहीं रह सकते।
(१७) प्रतिक्रमी - मन, वचन, काय से किये गये अपराधों का आलस्य रहित होकर निष्कपट भावों से निराकरण करने वाले को प्रतिक्रमी कहते हैं।
(१८) वर्षायोग (पाद्य) - वर्षाकाल में चार मास एक स्थान पर रहने को, विहार का त्याग करने को पाद्य नामक स्थिति-कल्प कहते हैं। वर्षाकाल में भूमि त्रस और स्थावर जीवों से व्याप्त हो जाती है। उस समय भूमि का प्रत्येक प्रदेश जीव से युक्त होता है। उस समय विहार करने से मुनि के संयम का विनाश होता है। वृष्टि के कारण शीत वायु के चलते रहने से मुनि के शरीर की विराधना होना सम्भव है। उस समय मार्ग प्राय: जलमग्न रहते हैं, इसलिए कुए, बावड़ी आदि में गिरने की सम्भावना रहती है, जल के आछन्न होने से पाँव आदि में काँटें, पत्थर आदि के गड़ जाने की तथा ठूठ (स्थाणु) आदि की चोट लगने का भय रहता है, कीचड़ आदि की बाधा होती है, इसलिए मुनीश्वर वर्षायोग में एक जगह एक सौ बीस दिन (४ मास) तक ठहरते हैं। यह उत्सर्ग मार्ग (सामान्य नियम) है। कारण विशेष होने पर अधिक दिन भी ठहर सकते हैं। जैसे कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के दिन चातुर्मासिक योग समाप्त होने पर भी वृष्टि बहुत हो रही हो, श्रुत का अभ्यास करना हो, विहार करने की शक्ति न हो, किसी वृद्ध या रोगी साधु की वैयावृत्ति करनी हो, आदि कारण उपस्थित हों तो अधिक दिन भी ठहर सकते हैं।