Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 318
________________ आराधनासमुच्चयम् ३०९ मनुष्य तो सम्यग्दर्शन की आराधना के पश्चात् चारित्र दशा प्रगट करके मोक्ष भी पा सकते हैं। सच में जो जीव निःशंकता, नि:कांक्षिता, निर्विचिकित्सा इत्यादि आठ अंग सहित सम्यग्दर्शन के धारक होते हैं, वे धन्य हैं। इसलिए सम्यग्दृष्टि जीवों की हम यहाँ स्वर्ग में भी प्रशंसा करते हैं। इस समय कच्छ देश में उद्दायन नामक राजा अभी सम्यग्दर्शन से सुशोभित है और सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का वे पालन करते हैं, उसमें भी निर्विचिकित्सा अंग का पालन करने में वे बहुत दृढ़ हैं। मुनिवरों की सेवा में वे इतने तत्पर हैं कि कैसे भी रोगादि हों तो भी वे जरा भी जुगुप्सा नहीं करते और घृणा बिना, परम भक्ति से धर्मात्माओं की सेवा करते हैं, धन्य है उन्हें, अहो उन चरम शरीरी को। राजा के गुणों की ऐसी प्रशंसा सुनकर वासव नामक एक देव के मन में उन्हें देखने की इच्छा हुई और वह स्वर्ग से उतरकर मनुष्यलोक में आया। इधर उद्दायन राना एक मुनिज को देखा कि हाम्नान के लिए पड़गाह रहे हैं। हे स्वामी..... हे स्वामी.... हे स्वामी..... पश्चात् रानी सहित उद्दायन राजा नवधा भक्ति पूर्वक मुनिराज को आहार देने लगे। अरे ! लेकिन यह क्या ? बहुत से लोग मुनिवेषधारी वासवदेव से दूर भागने लगे। बहुतों ने तो अपने चेहरे को कपड़े से ढक लिया, क्योंकि मुनि के काने-कुबड़े शरीर में भयंकर कोढ़ रोग हुआ था और उसमें से असह्य दुर्गन्ध आ रही थी, हाथ-पैरों से पीप बह रही थी। परन्तु राजा का इस पर कोई लक्ष्य नहीं था, वे तो प्रसन्न होकर परम भक्ति से एकचित्त होकर आहार दे रहे थे और स्वयं को धन्य मान रहे थे - अहो ! रत्नत्रयधारी मुनिराज मेरे आँगन में आये हैं। इनकी सेवा से मेरा जीवन सफल हो गया। इतने में मुनिराज के पेट में अचानक गड़बड़ी हुई और उनको एकाएक उलटी हुई। वह दुर्गन्ध भरी उलटी राजा-रानी के शरीर पर जा गिरी। अचानक दुर्गन्ध भरी उलटी उनके शरीर पर गिरने से भी राजा - रानी को किंचित् भी ग्लानि नहीं हुई और मुनिराज के प्रति जरा भी घृणा नहीं आई, बल्कि अत्यन्त सावधानीपूर्वक वे मुनिराज के दुर्गन्धमय शरीर को साफ करने लगे और उनके मन में ऐसा विचार आया - अरे रे ! हमारे आहारदान में अवश्य कोई भूल हुई होगी, जिस कारण से मुनिराज को इतना कष्ट हुआ, मुनिराज की पूर्ण सेवा हम से नहीं हो सकी। वास्तव में, किसी मुनिराज को कष्ट नहीं पहुँचा, ऐसा जानकर राजा का चित्त प्रसन्न हो गया और वे कहने लगे - हे देव ! यह मनुष्य शरीर तो स्वभाव से ही मलिन है और रोगों का घर है। यह अचेतन शरीर मलिन हो तो भी उसमें आत्मा का क्या ! धर्मी वा आत्मा तो सम्यक्त्वादि पवित्र गुणों से ही शोभित होता है। शरीर की मलिनता देखकर धर्मात्मा के गुणों के प्रति जो ग्लानि करते हैं, उन्हें आत्मा की दृष्टि

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