________________
आराधनासमुच्चयम् ३३९
दुष्कर था, कोई भी सभासद उसे पढ़ नहीं सका किन्तु राजा चण्डप्रद्योत ने उसे पढ़ लिया, जिससे उसका यश सारे जगत् में फैल गया। अब चण्डप्रद्योत को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। शीघ्र ही गुरुदेव कालसंदीव के पास जाकर उसने क्षमायाचना की। उनके पद-कमलों की पूजा की जिससे उसे शीघ्र ही विशेष ज्ञान की प्राप्ति हुई ।
जो मूढ़ अज्ञान के वशीभूत होकर गुरु के नाम का निह्नव करते हैं, वे श्वेतसंदीव नामक मुनिराज समान दुख के भाजन बनते हैं ।
कालदीव मुनि से दीक्षा ग्रहण कर तथा उनसे ज्ञानोपार्जन करने वाले श्वेतसंदीव मुनि वृक्ष के नीचे आतापन योग धारण कर तपश्चरण कर रहे थे। उनका तपश्चरण सर्वजन में विख्यात था। एक दिन दर्शनार्थ आये हुए श्रेणिक राजा ने पूछ लिया - "भगवन्! आपके दीक्षा एवं शिक्षागुरु कौन हैं ?" श्वेतसंदीव ने अपने गुरु का नाम न बताकर अपनी ख्याति के लिए कह दिया- "मेरे गुरु तो भगवान महावीर हैं, मैं साक्षात् भगवान के मुखारविन्द से निकली हुई वाणी को सुनकर ज्ञानी बना हूँ।" इतना कहने मात्र से उनका सारा शरीर कृष्ण वर्ण का हो गया और उस पर कुष्ठ रोग के चिह्न दृष्टिगोचर होने लगे। ठीक ही है, जो गुरु के नाम को छिपाते हैं, वे अशुभ कर्मों का बंध कर दुख के भाजन बनते हैं।
श्रेणिक राजा ने जान लिया कि इन्होंने अपने गुरु के नाम का अपलाप किया है, इसी से इनके शरीर की यह दशा हुई है। श्रेणिक ने श्वेतसंदीव मुनिराज को कहा - "गुरु के नाम का अपलाप करने से आपके शरीर में यह व्याधि उत्पन्न हुई है। आपको ऐसा नहीं करना चाहिए।" राजा की सत् शिक्षा से मुनिराज को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और उन्होंने गुरु के चरणों में प्रायश्चित्त ग्रहण कर मन की शुद्धि की । तदनन्तर क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर केवलज्ञान प्राप्त किया ।
इस प्रकार अंगहीन ज्ञान की आराधना से होने वाली हानि और अंग सहित पढ़ने से लाभ को जानकर हेय को छोड़कर उपादेय को ग्रहण करना चाहिए।
इस प्रकार ज्ञान के आठ अंगों सहित शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना-कराना ज्ञानाराधना का
उपाय है।
चारित्र आराधना का उपाय
दुर्लश्याध्यानाव्रतकषायदण्डप्रमादमदशल्याः ।
संयमगारव भय संज्ञादिक दोषावलीत्यागः ॥ २३८ ॥ व्रत समिति गुप्ति संयम सल्लेश्याध्यानभावनाधर्म - 1 शुद्ध्यादिगुणाभ्यासश्चारित्राराधनोपायः ।। २३९ ॥