Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 341
________________ आराधनासमुच्चयम् ३३२ - गारव-भय-संज्ञादिकअन्वयार्थ - दुर्लेश्याध्यानाव्रतकषाय दण्डप्रमादमदशल्या: संयम -‍ दोषावली - त्याग : - दुर्लेश्या, अपध्यान, अव्रत, कषाय, दण्ड, प्रमाद, मद, शल्य, असंयम, गारव, भय, संज्ञा आदिक दोषों के समूह का त्याग करना । व्रतसमिति गुप्ति संयम सल्लेश्या ध्यान भावना धर्मशुद्ध्यादिगुणाभ्यासः - व्रत, समिति, गुप्ति, संयम, शुभलेश्या, ध्यान, भावना, धर्म, शुद्धि आदि गुणों का अभ्यास करना | चारित्राराधनोपायः - चारित्र आराधना के उपाय हैं। अर्थ - जो आत्मा को पुण्य-पाप रूप से लिप्त करती है वा कषाय के उदय से अनुरंजित मन, वचन, काय की प्रवृत्ति है, उसको लेश्या कहते हैं । द्रव्य और भाव की अपेक्षा लेश्या दो प्रकार की है। वर्ण नाम कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ जो शरीर का वर्ण है वह द्रव्य लेश्या है। उस वर्ण के छह भेद हैं- कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल । अर्थात् - भौरे के समान कृष्णवर्ण है। नील मणि या मयूर के कण्ठ के समान नील वर्ण है, कबूतर के समान वर्ण कपोत रंग है। तप्त सुवर्ण के समान वर्ण तेज या पीत वर्ण है। पद्म के सदृश वर्ण पद्मवर्ण है। काँस के फूल के समान श्वेत वर्ण शुक्ल लेश्या है। इन वर्गों में एक-एक के भेट अपने-अपने उत्तर भेदों के द्वारा अनेक रूप हैं। जिस प्रकार कृष्णवर्ण हीन, उत्कृष्ट अनन्त भेदों को लिये हुए हैं इसी प्रकार छहों द्रव्य लेश्याओं के जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त शरीर के वर्ण की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात और अनन्त तक भेद हो जाते हैं। जो आत्मा को कर्म से लिप्त करती है, आत्मा का कर्म के साथ सम्बन्ध कराती है उसे तथा कषाय के उदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति को भाव लेश्या कहते हैं। अथवा मोहनीय कर्म के उदय, क्षय, क्षयोपशम, उपशम और क्षय से उत्पन्न परिस्पन्दन भाव लेश्या है। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल के भेद से छह प्रकार की है। यद्यपि भाव लेश्या आत्मा का परिणाम है, परन्तु मन्द मन्दतर और मन्दतम के भेद से उसके संख्यात, असंख्यात, अनन्त भेद होते हैं। उन असंख्यात, अनन्त भेदों का कथन करना संभव नहीं है क्योंकि संख्यात वचनों के द्वारा असंख्यात एवं अनन्त वात्र्य नहीं होते। अतः लेश्याओं के छह भेद कहे हैं। इसीलिए छठे नरक के नारकियों की कृष्ण लेश्या की अपेक्षा मानवों एवं तिर्यञ्चों की कृष्ण लेश्या मन्द है और सातवें नरक के नारकी की लेश्या तीव्रतम है। इसी प्रकार स्वर्गादि में भी जानना चाहिए। लेश्याओं का स्वरूप लेश्याएँ आत्मा के विभाव परिणाम हैं। इन लेश्याओं के कारण ही आत्मा के साथ पुद्गल कर्मों का सम्बन्ध होता है और जीव संसार में भटकता है। इन लेश्याओं का स्वरूप इस प्रकार है - दुराग्रह, उपदेशावमानन, तीव्र वैर, अति क्रोध, दुर्मुख, I I

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