Book Title: Aradhanasamucchayam
Author(s): Ravichandramuni, Suparshvamati Mataji
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 339
________________ आराधनासमुच्ययम् ३३० गुरुदेव से नम्र निवेदन किया कि भगवन् ! निरन्तर स्वाध्याय करने पर मुझे शास्त्रज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा है, आप कोई उपाय बताइये, जिससे मुझे ज्ञान की प्राप्ति हो ! मुनिराज ने कहा "किसी वस्तु का त्याग कर पठन करने से आपको स्मरण ज्ञान की प्राप्ति होगी।" गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य करके उन्होंने निर्विकृति भोजन करने का नियम लिया । अल्पदिनों में ही वे श्रुत के पारगामी हो गये । - बहुमान विनय पवित्रता से हाथ जोड़कर चौकी आदि पर शास्त्र को स्थापित कर मन की एकाग्रता से अर्थ की अवधारणा करते हुए शास्त्राभ्यास करना बहुमान है। आत्मपरिणाम की विशुद्धि व कषायों के मंद होने से ही देवशास्त्र और गुरुजन के प्रति बहुमान आता है और परिणामविशुद्धि कर्मक्षय में निमित्त कारण है तथा शास्त्रों (जिनवचनों) का बहुमान करना जिन भगवान का बहुमान करना है क्योंकि जिनदेव और जिनवाणी में कोई अंतर नहीं है। जिनदेव, जिनवचन एवं निर्ग्रन्थ गुरु के प्रति बहुमान होने से कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होती है और कर्मों की निर्जरा से ज्ञान की प्राप्ति होती है। बहुमान विनय ज्ञान प्राप्त होने का कारण है अर्थात् शास्त्र का बहुमान करने वालों को शीघ्र ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। एक मुनिराज प्रतिदिन शास्त्र को नमस्कार करते, उसकी स्तुति पढ़ते, बहुमान से उच्च स्थान पर शास्त्र को रखते थे, जिससे वे ११ अंग १४ पूर्व के पाठी हो गये। अतः शास्त्र का बहुमान करना चाहिए, स्वप्न में भी श्रुत की अवेहलना नहीं करनी चाहिए। अनिह्नव - अपलाप करना, अन्यथा प्रवृत्ति करना, असलियत को छिपाना निह्नव है । जिस गुरु के समीप अध्ययन किया है, उसके नाम को छिपाकर दूसरे किसी विख्यात गुरु से मैंने अध्ययन किया है, ऐसा कहना निह्नव है । निह्नव का त्याग करना अनिह्नव है। निह्नव दोष से अशुभ कर्मों का आस्रव होता है और अनिलव से होती है सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति । चण्डप्रद्योत राजपुत्र को कालसंदीव नामक ब्राह्मण अध्ययन कराता था । चण्डप्रद्योत को कई भाषाओं का ज्ञान कराकर कालसंदीव अनार्य भाषाओं का ज्ञान करा रहे थे, परन्तु क्लिष्ट होने के कारण कितनी बार गुरु के बता देने पर भी चण्डप्रद्योत उसका शुद्ध उच्चारण नहीं कर सका। कालसंदीव ने उसको शुद्ध उच्चारण कराने का बहुत प्रयत्न किया, परंतु उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई। इससे कालसंदीव को कुछ क्रोध आ गया और क्रोध के वशीभूत होकर उसने चण्डप्रद्योत की पीठ पर एक लात मार दी। चण्डप्रद्योत था तो राजकुमार ही सो उसका भी मिजाज कुछ बिगड़ गया। क्रोध में आकर उसने कहा, “आपने जो मुझे मारा है, मैं भी इसका बदला लिये बिना नहीं छोडूंगा। मुझे आप राजा होने दीजिये, फिर देखना मैं भी आपके इस पाँव को काटकर ही रहूंगा ।" कुछ कारण पाकर कालसंदीव दिगंबर मुनि बन गये और चण्डप्रद्योत राजकुमार राजा । एक दिन asia के समीप अनार्य भाषा में लिखा हुआ एक पत्र आया, जिसका पढ़ना अति

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